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सब के लिये परिग्रह पाप है । जैसे भी हो वमे इनका त्याग करना पापों को हटाना है।
दिगम्बरत्व की पावश्यकता पाप से मुक्ति पाने के लिये आवश्यक ही है। ईसाई ग्रंथकार ने इसके महत्व को खब दर्शा दिया है। यही वजह है कि ईसाई मजहब के मानने वाले भी सैकड़ों दिगम्बर साधु हो गुजरे हैं।
दिगम्बर जैन मुनि "जधजादरवजादं उपडिद के समंसुगं सुद्ध। रहिदं हिंसादोदो अप्पकष्टिम्म हदि लिगं ||५|| मुच्छारंभविजुत्न जुत्तं उवजोम जोग सुद्धीहि ।
लिग ण परवेक्खं अणुभव कारणं जो एह ।।६।। --प्रवचन सार दिगम्बर जैन मुनि के लिये जैन शास्त्रों में लिखा गया है कि उनका लिंग अथवा बेश यथाजानरूप नग्न हैसिर और दाढी के केश उन्हें नही रखने होते-वे इन स्थानों के बालों को हाथ से उखाड़ कर फेंक देते हैं-यह उनकी देशालन्चन क्रिया है। इसके अतिरिका दिगम्बर जैन मुनि का वेप शुद्ध, हिंसादि रहित, शृंगार रहित, ममता-प्रारम्भ रहित, उपयोग और योग की शुद्धि सहित, पर द्रव्य की अपेक्षा रहित, मोक्ष का कारण होता है । सारांश रूप में दिगम्बर जैन मनि का वेष यह है किन्तु यह इतना दुर्टर ओर गहन है कि संसार-प्रपंच में फंसे हए मनुष्य के लिए यह संभव नहीं है कि वह एकदम इस वेप को धारण कर ले । तो फिर क्या यह वेष अव्यवहार्य है ! जैनशास्त्र वाहते हैं, 'कदापि नहीं। और यह है भी तक क्योंकि उनमें दिगम्बरत्व को धारण करने के लिए मनुष्य को पहले से ही एक वैज्ञानिक ढंग पर तैयार करके योग्य वना लिया जाता है और दिगम्बर पद में भी उसे अपने मूल उद्देश्य की सिद्धी के लिए एक वैज्ञानिक ढग पर ही जीवन व्यतीत करना होता है। जैनेतर शास्त्रों में यद्यपि दिगम्बर वेष का प्रतिपादन हया मिलता है किन्तु उनमें जैनधर्म जैसे वैज्ञानिक नियमप्रवाह की कमी है। और यही कारण है कि परमहंस वानप्रस्थ भी उनमें सपत्नीक मिल जाते हैं । जैनधर्मके दिगम्बर साधनों के लिए ऐसी बात बिल्कुल असंभव हैं।
अच्छा तो, दिगम्र वेप करने के पहले जैनधर्म मुमुक्ष के लिए किन नियमों का पालन करना आवश्यक बतलाता है? जैनशास्त्रों में सचमुच इस बात का पूरा ध्यान रक्खा गया है कि एक गृहस्थ एक दम छलाँग मार कर दिगम्बरत्व के उनम्न शैल पर नहीं पहुंच सकता । उसको वहां तक पहुंचने के लिए कदम-ब-कदम आगे बढ़ना होगा। इसी क्रम के अनुरूप जनशास्त्रों में एक गहस्थ के लिये ग्यारह दर्ज नियत किये हैं। पहलं दर्ज में पहुंचने पर कहीं गृहस्थ एक श्रावक कहलाने के योग्य होता है। यह दर्जेगहस्थ को आत्मोन्नति के सूचक हैं और इनमें पहले दर्ज से दूसरे में प्रात्मोन्नति को विशेषता रहती
का विशद वर्णन जैन ग्रंथों में जैसे 'रत्नकरण्डकधावकाचार' में ख़ब मिलता है। यहां इतना बता देना हो की है कि इन दजों से गुजर जाने पर हो एक श्रावक दिगम्बर मुनि होने के योग्य होता है । दिगम्बर मुनि होने के लिये यह उसकी ट्रेनिंग' है और सचमुच प्रोषधोपवासवत प्रतिमा से उसे नंगे रहने का अभ्यास करना
भ कर देना होता है। मात्र पर्व-अष्टमी और चतुर्दशी-के दिनों में वह अनारम्भी हो-घर बाहर का कामकाज-छोडकर- श्रत उपवास करता तथा दिगम्बर होकर ध्यान में लीन होता है। ग्यारहवीं प्रतिमा में पहुंच कर वह मात्र लंगोटी का परिग्रह अपने पास रहने देता है और गृह त्यागी वह इसके पहले हो जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा का धारी वह
लक या क्षुल्लक' पादरपूर्वक विधिसहित यदि प्रासुक भोजन गृहस्थ के यहां मिलता है तो ग्रहण कर लेता है । भोजनपात्र का रखना भी उसकी खुशी पर अवलम्बित है। बस, यह श्रावक-पद की चरम-सीमा है। 'मुण्डकोपनिशद के 'मुण्डक श्रावक'
होते है। किन्त बनां चढ़ साघ का श्रेष्ठ रूप है। इसके विपरीत जैनधर्म में उसके पागे मुनिपद और है। मनिपद
-- - - - - - .-. .१. यूनानी लेखकों ने उनका उल्लेख किया है । देखो। Alp. 181 २. भम प० २०५ तथा बौदों के 'अंगनर निकाय' में भी इसका उल्लेख है। ३. वीर वर्ष ८० २५१-२५५