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में पहुंचने के लिये एलक श्रावक को लाजमी तौर पर दिगम्बर-वेष धारण करना होता है। मुनियों के मूल गुण जैन शास्त्रों में इस प्रकार बताए गए हैं:
पंचय महत्वमाहं समिदीयो पंच जिणवरोडिट्ठा । पंचेविदियरोहा छप्पिय आवासया लोचो ॥२॥ अचेल कमण्हाणं खिदिरायणमदत घस्सणं चैव । दिदिभोययभत्तं मूल गुणा अट्ठवीसा दु || ३ ||
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मूलाचार ।
अर्थात् -"पांच महाव्रत (श्रहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), जिनवर कर उपदेशो हुई पांच समितियां ( ईर्यासमिति, भाषा समिति, एषणा समिति, प्रादाननिक्षेपण समिति, मूत्रविष्ठादिक का शुद्ध भूमि में क्षेपण अर्थात् प्रतिष्ठापना समिति), पाँच इन्द्रियों का निरोध (चक्षु, कान, नाक, जीभ, स्पर्शन-इन पांच इन्द्रियों के विषयों का निरोध करना), छह स्रावश्यक ( सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, बंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग), लांच, आलय अस्तान, पृथिवीशयन, प्रदतघर्षण, स्थितिभोजन, एक भक्त ये जैन साधुओं के अट्ठाइस मूल गुण हैं ।"
संक्षेप में दिगम्बर मुनि के इन अठ्ठाइस मूल गुणों का विवेचनात्मक वर्णन यह है:(१) बहिंसा महाव्रत - पूर्णतः मन-वचन काय पूर्वक अहिंसा धर्म का पालन करना । (२) सत्य महाव्रत - पूर्णतः सत्य धर्म का पालन करना ।
(7) अस्तेय
पालन करना।
( ४ ) ब्रह्मचर्यं महाव्रत - पूर्णतः ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करना ।
(५) अपरिग्रह महाव्रत - पूर्णतः अपरिग्रह धर्म का पालन करना ।
(६) ईर्ष्या समिति - प्रयोजनवश निर्जीव मार्ग से चार हाथ जमीन देखकर चलना ।
( ७ ) भाषा समिति - पैशून्य, व्यर्थं हास्य, कठोर वचन, परनिश, स्वप्रशंसा, स्त्री कथा, भोजन कथा, राजकथा, चोर कथा इत्यादि वार्ता छोड़कर मात्र स्वपरकल्याणक वचन बोलना ।
(८) एषणासमिति – उद्गमादि छयालीस दोषों से रहित, कृतकारित नी विकल्पों से रहित भोजन में रागद्वेष रहितसमभाव से -- बिना निमंत्रण स्वीकार करे, भिक्षा-वेला पर दातार द्वारा पड़गाने पर इत्यादि रूप भोजन करना । (e) आदाननिक्षेपण समिति - ज्ञानोपकरणादि पुस्तकादि का (१०) प्रतिष्ठापना समिति एकान्त, हरित व सकाय रहित, स्थान में मल-मूत्र क्षेपण करना ।
(११) चक्षुनिरोध व्रत - सुन्दर व सुन्दर दर्शनीय वस्तुओं में राग-द्वेषादि तथा आसक्ति का त्याग ।
(१२) कर्णेन्द्रिय निरोध व्रत-सात स्वर रूप जीव शब्द ( गान) और वीणा आदि से उत्पन्न जीवशब्द रागादि के निमित्त कारण हैं, अतः इनका न सुनना ।
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यत्नपूर्वक देख भाल कर उठाना- घरना ।
गुप्त, दूर, बिल रहित, चौड़े, लोकनिन्दा व विरोध-रहित
(१३) घ्राणेन्द्रिय निरोध व्रत -सुगन्धित और दुर्गन्धि में रागद्वेष नहीं करना ।
(१४) रसनेन्द्रिय निरोध व्रत - जिह्वालम्यटता के त्याग सहित और आकांक्षा रहित परिणाम पूर्वक दातार के यहाँ मिले भोजन को ग्रहण करना ।
(१५) स्पर्शनेन्द्रिय निरोध व्रत- कठोर, नरम आदि पाठ प्रकार का दुःख अथवा सुख रूप जो स्पर्श उसमें हर्ष विषाद न
रखना ।
(१६) सामायिक – जीवन-मरण, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु, सुख-दुख, भूख-प्यास आदि बाधाओं में रागद्वेष रहित समभाव
रखना ।
(१७) चतुविशति - स्तव - ऋषभादि चौबीस तीर्थकरों की मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक स्तुति करना ।
(१८) वन्दना - अरहंतदेव, निर्ग्रन्थ गुरू और जिन शास्त्र को मन-वचन-काय की शुद्धि सहित बिना मस्तक नमाये नमस्कार
करना ।
(१९) प्रतिक्रमण - द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप किये गये दोष को शोधना और अपने श्राप प्रगट करना ।
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