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चौपाई
उत्तम गणपति को शिर नाय, बहुत प्रश्न कीनी नर राय । तब श्रीमुख दिव पवानी भई, सो नृप प्रति गणधर वरनई ।।५।। प्रथम सत्व सत्ताइस कहे, श्रावक जती धर्म द्वय लहै। चतुरबीस जिनवर हि पुरान, जुदे जुदे भाष गुणवान ||५६|| चक्रवर्ती जे द्वादश भये, तिनके सकल चरित वरमये । नब हरि नव प्रतिहरि बल जान, तिनको कथन काही भगवान ।।५७।। तीर्थकर के तात रु मात, कामदेव चौबीस विख्यात । नौ नारद अरु ग्यारा रुद्र, चौरा कुलकर जान समुद्र ।।५।। और पुरुष जे मुक्ति हि वरा, कोई सुरग नरक पुन गये। तिनही को कछु कारण पाय, कह्यौ भेद गणधर समझाय ||५||
ब्रतों का वर्णन पृथक पृथक व्रत भाष सबै, तिनके भेद कहौं कछु अवै । षोडष कारण उत्तम शाख, भादौं माघ चैत्र त्रय भाख ॥६॥ दिन बत्तीस इकांतर कर, पोडश अंग भावना धरै । षोडश वरप वरन प्रजंत हि गहै, नीचे तीर्थंकर पद लहै ॥६॥
शत्रु को मारने के लिए स्वर्ग-मोक्ष दायक आपका धर्मोपदेश रूपी बाण प्राप्त होगा और इस प्रकार पुण्यात्मा जीवों को निश्चय रूपेण सफलता मिलेगी। मिथ्या ज्ञान रूपी महा अन्धकार को नष्ट कर देने वाला यह उत्तम धर्मचत्र भी सज गया है। इस धर्मको जीवों ने चारों ओर से घेर रखा है। यह आपकी गौरव पूर्ण विजयको बताने वाला है। मिथ्या मार्ग को हटाकर सत्यमार्गके प्रतिपादन के लिये काल भी आपके सम्मुख उपस्थित है। मैं अब और अधिक क्या कहूं? बस, इतना ही कहना प्राप पर्याप्त समझ लें कि शीघ्र ही अब पाप विहार करके आर्य खण्ड निवासी भव्यजीवों का कल्याण करें और उन्हें पवित्र बनाये । मिथ्या
एक प्रभावशाली, बलवान और अत्यन्त सुन्दर नवयुवक को समवशरण में बैठा देखकर धेरिएक ने पूछा कि यह महा तेजस्वी कौन है तो उन्होंने घर में पुन:-- -'यह रिजननगरोहबाट मन्नूकुम्भ का राजकुमार आदिविजय है। पिछले जन्म में यह महा दरिद्री, रोगी और दुःखी था जिससे तंग आकर इसने चौदहवें तीबङ्कर श्री अनन्तनाथ जी को शान्ति प्राप्त करने की विधि पूछी तो उन्होंने इसको 'अनन्त चौदश' के व्रत देकर कहा कि भादों सुदि चौदा को हरसाल १४ साल तक उपवास रखकर चौदहवें तीर्थे 'कर का शुद्ध जल के चौदह कलशों से प्रक्षाल करके पूजन करो और चंवर, छत्र आदि १४ बस्तु, हर साल श्री जिनेन्द्र भगवान् की भेंट करो। इसने चौदह साल तक ऐसा ही किया, जिसके पुण्य फल से यह इतना बुद्धिमान्, धनवान्, रूपवान और बलवान हुआ है।
श्रेणिक ने श्री बीर भगवान से पूछा कि रक्षाबन्धन का त्योहार क्यों मनाया जाता है ? तो भगवन् को दिव्य ध्वनि से जाना कि बली, प्रह्लाद, नेमूचि और भरतपति नाम के चार मंत्रियों ने हरितनागपुर में नरयज्ञ के शने आचार्य श्री अक.म्पन और इनके संग के सात सौ जैन मनियों को भस्म करने के लिए अग्नि जला दी तो श्रावण सदि पूर्णमाशी के दिन उनकी रक्षा विष्णु जी नाम के मुनि द्वारा हुई थी इसलिए उनको रक्षा की वादगार मनाने के लिए उस दिन से हर साल रक्षाबन्धन का त्योहार मनाया जाता है।
महाराजा श्रेणिक ने फिर पूछा कि यज्ञ में जीव घात कब से और क्यों होने लगा ? उत्तर में उन्होंने सुना 'अयोध्या नगरी में क्षीरकदम्ब नाम के उपाध्याय के पास पर्वत और नारद नाम के दो विद्यार्थी भी पढ़ते थे। एक दिन शास्त्र-चर्चा में पूजा का कथन आया। नारद ने कहा कि पूजा का नाम यज्ञ है "अजयष्टव्यम्" जिसमें अज यानी बोने से न उगने वाले शालि धान यव (जी) में होम करना बताया है। पर्वत ने कहा, जिसमें अज यानी छेला (बकरा) अलंभन हो उसका नाम यज्ञ है। पर्वत न माना उसने कहा कि हमारा न्याय यहां का राजा बस करेगा और जो झटा होगा उसकी जीभ छेदन कर दी जायेगी। यह तय करके पर्वत अपनी माता स्वस्तिमती के पास आया और नारद की बात कही, माता ने कहा कि भारद सच कहता है । जो बोई जाने पर न उगे ऐसी पुरानी पाली तथा पुराना यंव (जौ) का नाम अज है चेले का नाम नहीं, तुमने गलत अर्थ बताया । यह सुनकर उसने कहा कि कुछ उपाय करो वरन् मामला राजा के पास जायेगा और जिसको यह झूठा कह देगा उसकी जीभ काट दी जावेगी, तुम मेरी माता हो संकट के समय अवश्य मेरी सहायता करो। माता बेटे के मोह में राजा वेत्तुं के पास गई और उससे कहा कि तुमने जो मझे वचन दे रखे हैं, उन्हें आज पूरा कर दो। राजा ने कहा मांगो क्या मांगती हो मैं अवश्य अपने वचन पूरे करूगा । उसने कहा मेरे बेटे पर्वत पर बड़ा संकट आ पड़ा, कृपा करके उसको दूर कर दो। राजा ने कहा कि बताओ उसको किसने सताया है ? मैं अवश्य उसकी सहायता करूंगा।
उसने कहा-"पर्वत ने मांस भक्षण के लोभ से अज का मतलब छैला (बकरा) बताकर बड़ा पाप किया। नारद ने समझाया कि इसका मतलव न उगने बाले जी से है परन्तु पर्वत अपनी बात पर यहां तक अहा कि उसने कहा कि राजा बसु से न्याय कराऊ'गा। वह जिसको झठा कहेंगे उसकी जीभ काट ली जावेगी। हे राजन् ! यह सच है कि नारद सच्चा है, परन्तु मेरी सहायता करो, ऐसा न हो कि पर्वत की जीभ