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महावीर वीर धीर घातिकर्म नाश वीर । वन्दौं शिर नाइ नाइ सकल सिद्धि लोचनी ।। प्रनमौं जिन वर्षमान मानी दल मलत मान । ज्ञानको प्रकाश महा मोह नीद नाशनी ।। सन्मति प्रभु सुमति दाय भव भव प्रज्ञान जाय । तिनके जुग चरन कमल पाप ताप मोचनो। जै जै जिन जगत बंद काटत भ्रम जाल फेद । आपदा निवार सर्व दोष दुःख दाहिनी ॥५३॥
दोहा
यह विधि बहु अस्तुति करी, फिर प्रनम्यौ भूपाल । नर कोठा प्रारूढ़ , सुनी सुधर्म विशाल ॥५४॥
मोक्षके परम रमणीक दीपमें ले जाने वाले चतुर व्यवसायी पाप ही हैं । इन्द्रिय कषाय रूपी चोरों को पकड़कर अत्यन्त कठोर दण्ड देनेवाले महाबलवान योद्धा भी आप ही हैं । हे प्रभो आप भव्यजीवों पर दया करके मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त-प्रचार के लिये धर्म साधक विहार-कार्यका प्रारम्भ करें जो कि भव्य जीवरूपी धान्य मिथ्यातरूपी दुष्काल (अकाल) के कारण एकदम सुखसे गये हैं। उन्हें धर्मरूपी अमृत जलके सिंचनसे आप पुनः हराभरा कर दीजिये । सम्पूर्ण जगतको दुःखदेने वाले एवं दुर्जेय मोहरूपी
बात अच्छी लगी। एक दिन धर्मरचि नाम के योगी आहार के निमित्त सोमदत्त के घर आये, तो नागश्री ने मुनिराज को आहार में जहर
दिया जिसके पाप से नागधी को कुष्ट रोग हो गया इस लोक के महादुःख भोगकर परलोक में भी पांचवें नरक के महा भयानक दुःख सहन करने पडे । वहाँ से आकर सहुई। विष भरे जीवन से छुटकारा मिला तो फिर नरक में गई, वहां से आकर चम्पापुरी नगरी में एक चण्डाल के घर पैदा हई। एक रोज वह जंगल में जा रही थी कि समाजिगुप्त नाम के मुनीश्वर उसको मिल गए। वह चांडाल पुत्री महादःखी थी उनकी
मया को देखकर उनमें धर्म का उपदेश सुना, हमेशा के लिए मांस, शराब, शहद और पाव उदुम्बर का त्याग किया। मर कर धनी नाम के काव सेठ के यहां दुर्गन्धा नाम की पुत्री हुई उसके शरीर से इतनी दुर्गन्य माती थी कि कोई उसको आने पास बिठाता तक न था. एक दिन दोन आयितायें आहार के निमित्त आई तो उसने भक्ति भाव से उनको पड़गाह लिया। याहार करने के बाद उन्होंने उसको धर्म का स्वरूप बताया. जिसको सनकर उसे वराया गया और दीशाले आदिका होकर तप करने लगी। एक दिन वसन्तसेना नाम की वैया अपने पांच लम्मठ पुरुषों के साथ क्रीडा करती हुई उसी बन में आ निकली कि जहां दुर्गन्धा तप कर रही थी।। दुर्गन्धा के हृदय में उसको पांच पुरुषों के साथ कीड़ा करते देखकर एक क्षण के लिए वैसे ही भोग-विलास की भावना उत्पन्न हो गई। परन्तु दूसरे ही क्षण में इस बुरी भावना पर पश्चाताप करने लगी। अपने हृदय को दकारा और शान्त मन करके समाधि मरण किया । अपने शुद्ध परिणामों तथा संवम, ता और त्याग के कारण वह सोलहवें, स्वर्ग में सोमभति नाम के देव की महासयों को भोगने बानी पत्नी हुई। सोमदत्त का जीव युधिष्ठिर है इसका सोमिण नाम का भाई भीम है सोमभक्ति का जीव अर्जन है. धनश्री का जीव नकुल है, मित्रश्री का जीव सहदेव है, दुर्गन्धा का जीव, जो पहले नागधी था द्रौपदी हैं । संयम, तप, त्याग और आहार दान के कारण युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन आदि इतने बलवान् और योद्धा-बीर हुए हैं । तप के कारण द्रोपदी इतनी सुन्दर और भाग्यशाली हैं। चकि उसने वसन्त सेना के पांच पुरुषों के साथ भोग-विलास को अभिलाषा एक क्षणमात्र के लिए की थी, इसके कारण इस पर पांच पति होने का दोष लगा।
थेणिक बिम्बसार ने मम्मेदशिखर जी की यात्रा का फल पूछा तो उन्होंने वीर वाणी में सुना कि कोटाकोड़ी मुनियों के ता करने और वहां से निर्वाण (Salvation) प्राप्त कर लेने के कारण सम्मेदशिखर जी की इतनी पवित्र भूमि है कि जो जीव एक बार भी श्रद्धा और भक्ति से यहां की यात्रा कर लेता है तो वह तिलच, नरक या पशु गति में नहीं जा सकता । उसके भाव इतने निर्मल हो जाते हैं कि अधिक से अधिक ४६ जन्म धारकर ५० में जन्म तक अवश्य मोक्ष (Salvation) प्राप्त कर लेता है। श्रेणिक ने वहां की इतनी उत्तम महिमा जानकर बड़ी खोज के बाद चौबीसों तीर्थंकरों के पक्के दौंक स्थापित कराये।
महाराजा श्रेणिक ने पूछा कि पंचम काल में मनुष्य कैसे होंगे ? उत्तर में सुना "दुखमा नाम का पंचम काल २१ हजार वर्ष का है । इस काल के आरम्भ में मनुष्य की प्रायु १२० वर्ष और गरीर सात हाथ का होगा, परन्तु घटते-घटते पंचम काल के अन्त में आयु २० साल की और शरीर २ हाथ का रह जायेगा । इस काल में तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण आदि नहीं होंगे और न अतिशय के धारी मुनि होंगे, न पृथ्वी पर स्वों के देवों का आगमन होगा और न केवलज्ञान की उत्पत्ति होगी। पंचम काल के अन्त होने में तीन धर्म साई पाठ महीने रह जायेंगे, तब तक मुनि, अयिकाएं, बावकाएं पाई जायेगी। ये चारों भव्य जीव पाँचवें या छठ गुणस्थान के भावलिगी हैं तो भी प्रथम स्वर्ग में हो जायेंगे। ऐसे मनुप्य भी अवश्य होंगे जो श्रावक व्रत को धारण करेंगे, जिसके फल से विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेगे।" .
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