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दीक्षा दान धर्म तप ध्यान, कायोत्सर्ग नियम व्रत जान । जे मुनीश इनते चल जाहीं, ते कहिए कातर जग मांहि ॥१६॥ से निज धीरज परगट कर, महादुसह तपको संचरै । ध्यानाध्ययन जोग थिर थाय, तीन गुपति पाले अधिकाय ॥१३॥ सह विषम उपसर्ग अपार क्षमाभाव धीरज उर धार । इहि विधि करं कर्म अरिघात, ते मुनि धीरवीर अवदात ॥१४॥ जिन शासन निदत जे क्रूर, मुनि श्रुति श्रात्रक मादि अर । कर प्रशंसा मिथ्या देव, कुसुत कुतपमीकी बहु सेब ।।१६शा क्रोध मान माया जुत होइ, अजस वर्ग बांधे शठ सोय । ते नर सिंह ज तीनों लोक अति अपजस पावै दुख थोक ||१६६। करें दिगम्बर गुरुको सेव, ज्ञानवंत गुण अलख अभेव । व्रत आचार करै समुदाय, पाल शील त्रिविध दृढ़ काय ||१९७|| तप जप धर्मध्यान उर लाइ, सबको हितमित वचनसुनाइ । भव भव शीलवंत पुन होइ, स्वर्ग मुक्तिफल पावं सोय ॥१६॥ सेब कुगुरू कुदेव कुपंथ, शील विना गहि गरें यः सुख की उर नर मोम हैं पारि सम भव भव शील ।। १६६।। जिन गणधर गुरु मुनि गुणसिंध, सम्यग्दृष्टि ज्ञान प्रबन्ध । चरणकमल पूजे कर सेब, तिनगुण प्रापति कारण एव ।।२०।। ये ही उत्तम पुरुष प्रधान, इनको तज सेवं अघवान । इहि भव परभव दुर्गति गहै, ते दुर्जन मूरख पद लहैं ॥२०१।। तत्वातत्व कुगुरु गुरु पर्म, देव अदेव जु धर्माधर्म । करि बिवेक पूजै भवि जीव, तप अरु ध्यान विचार सदीव ॥२०॥ जो इहि भव सूक्षमवुधि होय तो परभव पाव बहु सोय । ज्यों सुरेश पावै त्रय ज्ञान, ततछिन प्रगट लहै इक थान ।।२०३।। देव धर्म गुरु निन्दा करें, जिनमत देख दोष उर धरै । अपर देव पूजें मन गूड़, ते उपजहिं दुरबुद्धी मूढ़ ।।२०४|| तीर्थकर मूर सघ हि पाय, चरणकमल बन्द शिरनाय । नितप्रति भक्ति करै मनलाय, जस कीरति गुण कह बढ़ाय ॥२०॥ निज गुण निन्दाज भबि करें, अपर दोष उपगूहन घरं । ते परभव' पावै भुभ गोत तोन जगत जन सेवक होत ॥२०॥ निजगण प्रकट करें जन जंह, परको दोष कहै अधिकेह । नोच देव पूजे अज्ञान, कुगुरु कुदेव सेव उर प्रान ।।२०७।। त नर होंय नीच पद ताय, नीच गोत्र पावं दुखदाय । भागहीन दालिद्री महा, पाप तनौं कारण शठ लहा ॥२०॥ जे मिथ्या मारग अनुराग, कुगुरु कुपथ सेवं दुरभाग । पूरब संसकारके जोग, पावें अशुभ जन्म प्रति शोग ।।२०।। जिन सिद्धान्त सुगरु पर धर्म, ज्ञान चक्षु है जिनके पर्म । भक्ति सहित सेवै जुग पाय, ते परभव तिन समगुण थाय ॥२१०॥ अन्य देव को शरण जु लहै, सपने मात्र कुपथ पुन गहै । श्री जिनधर्म न श्रद्धा गहै, मरि के अधोगमन ते लहै ॥२११॥
दृष्ट, कूदेव, कशास्त्र, कगुरु एवं पाप परायण पुरुषों की सेवा, पूजा एवं नमस्कार किया करते हैं व्रत विधि से हीन हैं, सदैव विषय सखोकी ही कामना किया करते हैं, वे अशुभ कर्मके उदयसे पाप परायण एवं दुःखशील होते हैं । इसके विपरीत जो लोग उत्तम गणोंको प्राप्तिके लिये प्रयत्नशील होकर गुणाकर एवं ज्ञानवान् गुरु, जनयति तथा सम्यकद्दष्टि पुरुषांके सत्सङ्गमें सदैव तत्पर रहते हैं जन्म-जन्ममें स्वर्ग एवं मोक्ष को प्राप्त करा देने वाले पूर्वोक्त गुणी महात्माओं का उन्हें सत्संग मिला करता है। और जो लोग थष्ठ सज्जनोंका अनादर एवं उपेक्षा कर दुर्गणोंके आकार मिथ्यातियांक दु:संगमें फंसे रहते हैं वे नोच गतिको प्राप्त होते हैं तथा दुर्जन संसर्गके कारण बारबार अधोगती कसंगतिमें पड़े रहते हैं। जो लोग तीक्ष्ण एवं सूक्ष्म बुद्धिके द्वारा सदैव तत्व-अतत्व शास्त्र-शास्त्र, देव-गुरु-तपस्वी, धर्म-अधर्म, दान-कुदानका विश्लेषण एवं विचार किया करते हैं उनके हृदय में सूक्ष्म विचारकी एक श्रेष्ठ शक्ति विद्यमान रहती है। वे परलोकमें भी देवोंकी परीक्षा करने में प्रवृत्त होकर सफलता पा लते हैं । जो जीव ऐसा विश्लेषण नहीं करते और संसारके नानाविध सभी देव-गुरु ओंको आदरणीय, श्रद्धास्पद, अनिन्द्य, वचनीय एवं धर्म-मोक्षदायक समझ कर दू द्धिके कारण सभी धर्मों एवं देवों का आश्रय लेकर सभी का अनुसरण करने के प्रयास में तत्पर रहते हैं वे अत्यन्त निन्दनीय हैं और जन्म-जन्ममें मूढ़ होते हैं जो आर्य कर्माजीच नित्यप्रति तीर्थकर, गुरु, संघ, उच्च पदवी प्राप्त जीवों को भक्ति पूर्वक सेवा करते हैं स्तुति करते हैं और नमस्कार करते हैं तथा अपनी प्रशंसा न करके गुणियोंके दोषोंको छिपा कर श्रेष्ठताको ही प्रकट किया करते हैं वे उच्च गोत्र कर्मके उदयसे परलोक में सर्वोत्तम गोत्र को प्राप्त करते हैं। तथा जो लोग इसके प्रतिकूल आत्म-प्रशंसा एवं गुणी पुरुषों की निन्दा में लगे रहते हैं और कुत्सित गुरु, कुधर्म एवं नीच देव की सेवा धर्म प्राप्ति की अभिलाषा से किया करते हैं वे नीच कर्मके उदयसे नीच गोत्रको प्राप्त करते हैं। जिन दुर्बुद्धियोंका झुकाव मिथ्या मार्गमें है और एकान्तरूप