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२. धातको खण्ड की नदियां
उत्तर दक्षिण लम्बाई
नाम
पूर्व पश्चिम
| त्रि. प.।४। गा.
आदिम
मध्यम
अन्तिम
सामान्य नियम--सर्व नदियां जम्बूद्वीप से दुगुने विस्तार वाली हैं (ति. प. ।४।२५४६) दोनों बाह्य विदेहों की विभंगाद्रहवती व अमिमालिनी
५२८८६११११ ५२८९८०३३: ५२६१००
२६४४
ग्रहवती व फनमालिनी गम्भीर मालिनी व पंकावती
५४८३९०३३ . ५४८५०६१३ | ५४८६२६.११ | ५६७६१६३६३ | ५६८०३८३६५ | ५६८१५८३१६ ।
२६५२
सर्वत्र २५० यो. (ति. प.।४।२६०८)
दोनों अभ्यन्तर विदेहों की विभंगा क्षीरोदा
व उन्मत्तजला
२७५३३३३६५ । २७५२०९२४ | २७५२१४१६४
२६७६
मत्तजला व सीतोदा
२५५८०४१ २५५६८५६३६ | २५५५६५५१३ २३६२७५:५३३ । २३६१५६ | २३६०३६३६३
२६८४ २६६२
तष्तजला व औषधवाहिनी
चौथी पृथ्त्री तक के नारकी वहाँ से निकल कर चरम-शरीरी, धूम्रप्रभा पृथ्वी तक के जीत्र सकल-संयमी और छठी पृथ्वी नक के नारकी जीव देशानी हो सकते हैं । ओम (मातवीं) पृथ्वी पे जिकने हुए जीत्रों में कोई त्रिरते ही सम्पत्व के धारक होते हैं ।
इस प्रकार आगमन का वर्णन समाप्त हुआ।
अयु बध के नाशि नको रेषा के ममा । कोष, शल के रामान मान, वाँल की जड़ के समान माया और कृमिराग के समान लोभ कषाय का उदय होने पर नरकायु का बन्ध होता है।
कृष्ण, नील अपव' कामोत इन तीन लेवाओं का उदय होने से नरमायु को बांध कर और मर कर उन्हीं लेश्याओं से युक्त होकर महाभयानक नरक को प्राप्त करता है।
जो पुरुष वामानादि नीन लेश्याओं में सहित है. उनका लेना यह है-कृष्ण लेश्या मे युक्त दुष्ट पुरुष अपने ही गोत्रीय तथा एकमात्र स्वकलत्रको भी मारने की इच्छा करता है।
दया धर्म से रहिस, बैर को न छोड़ने वाला, प्रचण्ड कलह करने वाला और बहुत कोथी जीव कृष्ण लेश्या के साथ धम-प्रभा पृथ्वी से लेकर अन्तिम पृथ्वी तक में जन्म लेता है।
विषयों में आसक्त, मतिहीन, मानी, विवेकबुद्धि से रहित, मंद (मूर्य), आलमी, कायर, गनर मायाप्रपंच में संलग्न, निदाशील, दूसरों के ठगने में तत्पर, लोभ से अन्ध, धन-धान्पजनित सुख का इच्छुक, और बहुमज्ञायुक्त अर्थात् आहारादि चारों संज्ञाओं में आसक्त, ऐसा जीव नील लेश्या के साथ धूमप्रभा पृथ्वी तक में जन्म लेता है।
जो अपने आपको प्रशंसा और असत्य दोनों को दिखाकर दूसरों की निन्दा करता है, तथा जो भीरू, शोक व विषाद से युक्त, परका अपमान करने वाला और ईर्या मे संयुक्त है, जो कार्य-अकार्य को न समझकर चलचित्त होता हुमा परम पथ का श्रद्धान करता है, अपने सपान
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