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महावीर शासन को विशेषताएं
- श्री अगरचन्द नाहटा
भगवान महावीर का पावन शासन अन्य सभी दर्शनों से महती विशेषता रखता है। महावीर प्रभु ने अपनी अखंड
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एवं धनुषम साधना द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त कर विश्व के सामने जो नवीन आदर्श र उनकी उपयोगिता विश्व शान्ति के लिए त्रिकालबाधित है। उन्होंने विश्व कल्याण के लिए जो मार्ग निर्धारित किये, वे इतने निभ्रान्ति एवं अटल सत्य हैं कि उनके बिना सम्पूर्ण आत्म-विकास असम्भव-सा है।
वीर प्रभु ने तत्कालीन परिस्थिति का जिस निर्भीकता से सामना करके काया पलट कर दिया वह उनके जीवन की एक प्रसाधारण विशेषता है। सर्व जनमान्य एवं सर्व भाग सिद्धान्तों एवं क्रिया काण्डों का विरोध करना साधारण मनुष्य का कार्य नहीं. इसके लिए बहुत बड़े साहस एवं प्रात्मबल की आवश्यकता होती है और वह प्रात्मबल भी बड़ी कठिन साधना द्वारा ही प्राप्त होता है। भगवान महावीर का सायक जीवन उसका विशिष्ट प्रतीक है जिस प्रकार उनका जीवन एक विशिष्ट साधक जीवन था, उसी प्रकार उनका शासन भी महती विशेषता रखता है। इस विषय पर इस लघु लेख से विचार किया जाता है।
वीरासन द्वारा विश्व कल्याण का कितना घनिष्ठ सम्बन्य है। उत्कालीन परिस्थिति में इस शासन ने क्या काम कर दिखाया ? यह भली-भांति तभी विदित होगा जब हम उस समय के वातावरण से, सम्यक् प्रकार से परिचित हो जायें । अतः सर्व प्रथम तत्कालीन परिस्थिति का दिग्दर्शन करना प्रावश्यक हो जाता है ?
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जैन एवं बौद्ध प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उस समय धर्म के एकमात्र ठेकेदार ब्राह्मण लोग थे, गुरुपद पर वे ही 'सर्वेसर्वा थे उनकी पो आज्ञा राजाज्ञा से भी अधिक मूल्यवान समझी जाती थी राजगुरु भी वे ही थे, अतः उनका प्रभाव बहुत व्यापक था। सभी सामाजिक रीति रहने एवं धार्मिक क्रिया काण्ड उन्हीं के तत्वावधान में होते थे, और इसलिए उनका जातीय अहंकार बहुत बढ़ गया था। वे अपने को सबसे उच्च मानते थे मूद्रादि जातियों के धार्मिक एवं सामाजिक अधिकार प्रायः सभी छीन लिए गए थे. इतना ही नहीं, वे उन पर मनमाना अत्याचार भी करने लगे थे। उनकी दशा मूक पशुओं की थी। उन्हें यज्ञयागादि में ऐसे मारा जाता था मानों उनमें प्राण ही नहीं हो। इतना ही नहीं, इसे महान् धर्म भी समझा जाता था, वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं मानी जाती थी ।
इधर स्त्री जाति के अधिकारी भी छीन लिए गये थे। पुरुष लोग उन पर जो मनमाना अत्याचार करते थे, वे उन्हें निर्जीव की भांति सहन कर लेने पड़ते थे। उनकी कोई सुनाई नहीं थी। धार्मिक कार्यों में उनको उचित स्थान नहीं या अर्थात् स्त्री जाति बहुत कुछ पददलित-सी थी।
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यह तो हुई उच्च-नीच जातिवाद की बात इसी प्रकार वर्णाश्रमवाद भी प्रधान माना जाता था। साधना का मार्ग वर्णाश्रम के अनुसार हो होना श्रावश्यक समझा जाता था। इसके कारण सच्चे वैराग्यवान व्यक्तियों का भी तृतीयाश्रम के पूर्व सन्यास ग्रहण उचित नहीं समझा जाता था ।
इसी प्रकार शुष्क क्रिया-काण्डों का उस समय बहुत प्रास्य था। यज्ञयागादि स्वर्ग के मुख्य साधन माने जाते थे। वाह्य शुद्धि की ओर धक ध्यान दिया जाता था। अान्तरिक शुद्धि की ओर से सोगों का लक्ष्य दिनों दिन हटता जा रहा था । स्थान-स्थान पर तापस लोग तापसिक बाह्य कष्टमय क्रिया काण्ड किया करते थे और जन साधारण को उन पर काफी विश्वास था ।
वेद ईश्वर-कथित शास्त्र है. इस विश्वास के कारण वेदाशा सबसे प्रधान मानी जाती थी। अन्य महर्षियों के मत
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