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नाम
देवारण्यक -
वाह्य
अभ्यन्तर
३. पुष्कराचं द्वीप के वन खण्ड
भद्रशाल
नन्दन श्रादि |
वन
1
पूर्वापर
विस्तार
११६८८
होते हैं ।
13
मेक के पूर्व या
पश्चिम में
२१५७५८
श्रादिम
२०८२११४३१६
१६४०७१३२१६
मेरु के उत्तर या
दक्षिण में
नष्ट
धातकी खण्डवत्
.
उत्तर दक्षिण विस्तार
मध्यम
२०५७६९३२६
१३३५१३४३१४
इस प्रकार उत्पद्यमान जीवों का वर्णन समाप्त हुआ ।
उत्तर दक्षिण
कुल विस्तार
२४५११६
1
अन्तिम
२०६३२७२२३१
१३२६५५५२१६
१७१
(दे० लोक ४/४)
लि. प. ॥४॥ गा.
T
नारकी लोगों के पांच इन्द्रिय प्राण मन-वचन-कायदोनों बलप्राण आयुप्राण और आना (वासा) प्राण प्र तथा आहार, भय, मैथुन और परिवह ये चारों जायें होती हैं।
२६२६+२८७४
२०२०+२११०
सब नारकी जीव नरकगति से सहित, पंचेन्द्रि, साय-वाले, सत्य, असत्य, उभव और अनुमय, इन बार मनोयोग, चारों वचनयोग, दो) का इन दोनों भाव वाले सपा में आसक्त, मति, श्रुल अवधि, कुमति, कुन और विमंग इन छह शानों ने संयुक्त, विविध प्रकार के अतंपों ( अविरतिभेदों) से परिपूर्ण, चक्षु, अक्षु, अवधि, इन तीन दर्शनों से युक्त, मात्र की अपेक्षा कृष्ण, नील, कारोब, इन तीन लेयाओं और प की अपेक्षा उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या से सहित, राहिन, संजी, आहारक
और परिक, वाचिक, देश, विदाव, वागावन, मित्र, इन छह अनाहारक, इस प्रकार चौदह मार्गणाओं में से भिन्न-भिन्न मार्गपालों से सहित होते हैं।
ति. प. ॥४॥ गा.
२८२१
उन नारकी जीवों के साकार (ज्ञान) और निराकार (दर्शन) दोनों ही उपयोग होते हैं। ये नारकी तीव्र कपाय और तीव्र उदयवाली पाप-प्रकृतियों से युक्त होते हैं ।
इस प्रकार गुणस्थानादि का वर्णन समाप्त हुआ।
प्रथम पृथ्वी के जातक जशी तथा प्रथम और द्वितीय में सरीसृप जाता है। पहली से तीसरी पक्षी तथा पोथी तक भुजंगादिक होते हैं।
पांचवीं पृथ्वी पर्यन्त सिंह, छठी पृथ्वी तक स्त्री और सातवीं भूमि तक मत्स्य एवं मनुज ( पुरुष ) ही जाते हैं ।
उपयुक्त सात पृथ्वियों में क्रम से वे असंज्ञी आदिक जीव उत्कृष्ट रूप से आठ, सात, छह पांच, चार, तीन और दो बार ही उत्पन्न