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विश्वभूति भूपति अति नेह, अनुज विशाखभूति गुण गेह । लक्ष्मणास्य नारी को नाम, लक्षण भूषित सुन्दर बाम ॥७॥ तिनकै कृपुत्र बुद्धी भयो, नाम विशाखानंदि तिहि दयौ । ते सब पूरब पुण्य संजोग, करें सुक्ख मनवांछित भोग ।।८।। मेघ पटल को देख विनाश, विश्वभूति नप भयो उदास। यह विध जोबन पायु शरीर, विना जाय ज्यों बादर नीर | जो लौं जोबन बल यो आब, है शरीर में इनको चाब । तो लौं अनछ तपस्या करौं, मोख तनो सामग्रो धरौं ।॥१०॥ इत्यादिक चित हिय धार, तब संवेग दुग्ण विस्तार । सब भव भोग लक्ष्मी तजी, दीक्षा नपने हिरदं भजी ॥११॥ राज्य भार तब अनुजाह दियौ, पद युवराज पुत्र थापियो । श्रीधर मुनिवर प्रणमै जाय, दुविध परिग्रह दियो छडाइ ।।१२।। मन वच काया संजम धार, सो देवन को दुर्लभ सार । राय तीन सौ संग सुजान, छोड़ी राग दोष दुख खान ।।१३।। हन्यौ मोह इन्द्रिय अति घोर, ध्यान खडग संजय के जोर । उग्र उग्र तप कोनों सार, घात कर्म घा अब यह कथा रही इह ठौर, भाषौ भई जथारथ और । बिशनदि नृप बाग विशाल, सोहै सुन्दर परम विशाल ।।१५।। हेम कोट लस गिरदाकार, चारों दिस दरवाजे चार । बन कंगूर तुंग सु ठार, चित्र विचित्र चिने उर धार ॥१६॥ तामें सघन वृक्ष अपार, फल अर फूल सहित सुखकार । खारक दाख जायफर चार, नारंगो पूगी कचनार ||१|| लोंग लायची इमली श्राम, फले नारियल शोभा धाम। नींबू सदफर बेल खजूर, महुआ दाडिम कंथ वमूर ॥१८॥ नीम करोंदा तंदू जुत, वर पीपर ऊपर जु अतूत । जामुन वेर गटाइनि तवा, बोजौं तिस सगोना धया ॥१६॥ चन्दन पाडर खूजी बेलु, कुन्द गुलाब मालति मेलु । कमल कुमुदिनी कनयर जुहो, केवरो केतु चम्पक जूहो ।।२०।। इन प्रादिक तरु नाना भात, सोहत हैं सब निज निज पात । एक दिनां ता वनहो मझार, विश्वनदि मनहरण सुसार ॥२१॥ नारि सहित निज क्रीडा कर, लोला स्थिति वर सुख व्योपरे । अति मनोज्ञ ताही उद्यान, नन्द विशाख गयो अनजान ॥२२॥ ता वन देख मोह वह लह्यो, प्राइ पिता सों इहि विधि लह्यो । विश्वनन्दि पारण्य प्रधान, सो दो हमको गुण भान ॥२३॥ अरु जो तुम मोहि वन नहीं देउ, नो अब हमरो मुजरा लेउ । हीं तो जाऊ विदेश सहो, निश्चै कहो बात मैं यहो ।॥२४॥ ता वच गुन ना मोहित होइ, वोल्यो कपट वचन उर लोइ । बाको मैं उपाय प्रब करों, तुम मन में अब धीरज धरौ ॥२शा वेद-वेदांग इत्यादि मिथ्या शास्त्रोंका पंडित हुप्रा । उसो प्रकार पूर्व के मिथ्या संस्कार के वश उसने पारिव्राजक अर्थात त्रिदण्डी दीक्षा ग्रहण की। उसने तप आदि भी किये। जिस कुतप के फल से मृत्यु होने पर वह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुमा, उसको आधु सात सागरको हुई और वह थोड़ी सम्पदाका उपभोगी हुआ । उसो नगर में विश्वभूति नामका एक राजा था, जिसकी जैनी नामकी पत्नो थो। पुनः वह देव विश्वनन्दी नाम का इनका पुत्र हुमा । वह बड़ा पुरुषार्थों और शुभ लक्षणों वाला हुमा । राजा का एक विशाख भनि नाम का छोटा भाई था । उसको लक्ष्मणा नामकी पत्नी थी। उसके विशाखनन्द नामक पुत्र उत्पन्न हया । एक समय की घटना है राजा विश्वभूतिको शरद ऋतुके बादलों को देखकर सहसा वैराग्य उत्पन्न हुआ। उन्होंने विचार किया कि कैसी आश्चर्यमयी बात है कि, ये बादल क्षण भर में ही विलीन हो गये, इसो प्रकार मेरो प्रायु और योवन आदि सारी सम्पदाय नष्ट हो जायेगी, इसमें सन्देह नहीं। अतएव जब तक शरीर क्षीण हो उसके पूर्व ही मोक्ष प्राप्ति के लिये बराबर तप करना चाहिए। एसा विचारकर वह राजा सांसारिक विषयोंसे अत्यन्त विरक्त होकर दोक्षा धारण करने के लिये प्रस्तुत हो गया।
एक दिन उसने अपना राज्य छोटे भाई को सौंप कर अपने पुत्र को युवराजपद दे दिया। इसके पश्चात् वह राजा अपने गह से निकलकर विश्ववंदनीय थीधर मुनि के समीप गया और उनसे दीक्षा ले लो। उसने बाह्य-अभ्यन्तर के समय परिग्रहों का परित्याग कर तीन सौ राजारों के साथ मन वचन कायकी शुद्धता से मुनीश्वर पद प्राप्त किया। उस संयमी ने ध्यानरूपी तलवार से नाम और मोह को परास्त कर कर्मनाश के उद्देश्यसे तप पारम्भ किया।
विशाखनन्दी मकान की छत पर बैठा था कि विश्वनन्दी जिनका शरीर कठिन तपस्या के कारण निर्बल हो गया था, आहार के निमित्त मथरा नगरी में आये तो असाता कर्म के उदय से एक गउ भागती हुई दूसरी और से आई। जिसमे मुनि महाराज को धक्का लगा और नह भूमि पर गिर परे । विशाम्यनन्दी ने यह देख कर हंसते हुए कहा कि हार से वृक्ष उखाड़ने और कलाई की एक चोट से ववमयी खाभ को तोड़ने वाला वह तुम्हारा अल आज कहाँ है ? आहार में अन्तराय जान कर पुनिराज तो बिना प्रहार किये सरल स्वभाव जंगल में वारिस जाकर फिर ध्यान में नीना गए, पर विशायनन्दी मुनिराज की निन्दा करने के पाप फल से सातवें नरक गपा, जहां महाक्रोधी और कठोर नारकोगों ने उम गर्म धी में पकवान के समान पकाया, कोल्ह में उस नन्ने के समान पीड़ा और आरे से उसके जोवित शरीर को चीरा, मुद्गरों से पीटा । वर्षों इसी प्रकार उसकी नरको की वेदनाएं सहनी पड़ी।
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