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(शिखरिणी छंदः)
महावीरो
धीरस्त्रिदशपति संपूज्य चरणः, त्रिलोकेशी व्याप्तो महितशुचिबोधो जिनपतिः । नमामि त्वां नित्यं निखिल जगदातापहरणं, विधेया में शक्तिः सकलकलुषस्यापहरणे ||४|| त्रिदशपति से पूज्यचरण ! हे महावीर ! तुम धीर महान् ।
पति ! हे जनतव्याप्त शुचिमहितज्ञान ! जिनपति गुणखान ॥ निखिल जगत संताप हरण प्रभु तुमको मेरा नित्य नमन । सकल कलुष के नाश करन को मुझे शक्ति दीजे भगवन् ||४|| महा-मोह-व्याधेभिषगिव महाभार विजयी,
भदेर्ष्यासूयाजित्
जगद्द ु:खाम्भोधौ
स्तवीमि त्वां वीरं झटिति भम कुर्याः शुभमतिम् ||५|| महामोह व्याधि नाशन को वैध मदनभट विजयी हो, ईर्ष्या मान प्रसूया विजयी, त्रिभुवनसूर्य मुक्ति पति हो । भवसमुद्र में पतित जनों को अवलंबन दाता तुम हो, करूं संस्तुति सदा वीर प्रभु को मुझको दीजे सुमति ॥ ५॥ विरागद्वेषारिविगतकलुषो मोहरहितः, विजिष्णुर्भ्राजिष्णुर्विजितकरणः स्वस्थहृदयः ।
सदानंदो ज्ञानी जगति परमब्रह्म भगवान्,
प्रवंदे भक्त्या त्वां भवतु मम नेतः शुचितमं ॥ ६ ॥ ! वीतराग ! हे वीतद्वेष ! हे वीतमोह ! हे वीतकलुष ! हे विजिष्णु ! हे भ्राजिष्णु ! हे विजितेन्द्रिय ! हे स्वस्थ सुश्चित ॥ सदानंदमय ज्ञानी ध्यानी जग में परम ब्रह्म भगवन्; भक्ति से मैं करूं वंदना मेरा मन पवित्र हो जिन ! ||६||
(द्रुतविलंबितं)
त्रिभुवनरविर्मुक्तिरमणः ।
पतितजनतालंबन परः,
त्रिविध
बोधयुतः सुदिवश्च्युतः,
न हि जनन्युदरेऽपि च मूढता । विमल - पुण्यकरं शुभतीर्थ कृद्, विधिमुपाज्यं महाविभवः श्रितः ॥७॥
मति श्रुत प्रवधिज्ञान त्रयधारी स्वर्गलोक से च्युत होकर, माता के शुचि उदर गर्भ में भी त्रय ज्ञानी रहे प्रखर । अतिशय विमल पुण्य तीर्थंकर नामकर्म का बंध महान, पंच महाकल्याणक वैभव प्राप्त किया सुरपूज्य प्रधान ॥७॥
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