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पूजित तीन जगत कर देव, करहौं हरषवंत हृय सेव निन्दक कोई दोष ना भाव, वासुपूज्य के प्राश्रय जाव || १६ || अनादि कर्म दीनं तिन जार वचनामृत करि जोग निहार। पाप सुमल हर मेघ समान, विमलनाथ विमलातम जान ||२०|| | गुण अनन्त परिपूरण ज्ञान, सुरपति से हिरदे श्रान गुण अनन्त प्राति के का, बन्दों श्री अनन्त जिनराज || २१|| भावी धर्म दुविध सुखदान, स्वर्ग मुक्तिको कारण जान सुद्धियु धर्मचक्रमय सार बन्द धर्म कर्म करतार ॥ २२॥ दह्यो कर्म शत्रुनि को जोर कपायादिक उपद्रय घोर समतानिराधार कर जीन, शांति शांति कर नमीं सुफीव ॥ २३॥ दिव्य ध्वनि सबसौं जनपीय कुध्यादिक निविरोध्यो जीवनभू ३५रे होई ||२४||
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वचनशस्त्र
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कर घाते सार । दुरधर कर्म-शत्रू भयकार | इन्द्रिय विषय हरण जिनराज । वन्दों पर अरिहानक काज ॥२५॥ कर्ममल्ल जीते व वीर सकल जीव शरणागत धीर । बड़ । छेयौ मोहरा दुख वम्यो महिल शक्ति के कारण नम्बी ॥२६॥
हाय जोर बन्द शिरनाथ, व्रतकारणमुनिसुव्रत पाय ||२७|| इत्यी कर्म अरिकी सन्तान, तागुण कारण जोरें पान ॥२८॥ बालपने दीक्षा उर घरी, नेमि भर बंदी शिववरी ।। २६|| परन्दर पद्मावत भई पार्श्वनाथ निशिदिन बुति उई ||३०|| उपसर्ग-अग्नि संताप निवार, महावीर प्रणमों तिहार ॥३१॥ ॥ श्रथ विद्यमान बीस तीर्थकरों को नमस्कार ।।
दोहा
राजत परम विदेह में, वौस जिनेश्वर भास
सोमन्धर प्रभु आदि दे, विद्यमान सुख रास ॥ ३२ ॥ देव संघ अचित सदा, धर्म लक्ष्मी नाथ । विघन सकल मेरे हरी, बन्दों शिर धर हाथ ।। ३३ ।।
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अतीत श्रनागत बीस तीर्थंकरों को नमस्कार ॥
अतीत ग्रनागत तीर्थंकर
मुनिवर आदि सकल जन जेह, प्रत को देहि निरन्तर तेह नमि जिन नायक भारत ध्यान, सकल इन्द्र वन्दित भगवान मोह काम इन्द्रिय दुख जान, इनकी करी निरन्तर हाम जाने, महामन्त्र, परभाव, लह्यो, नाग, नागिन, सुशचाव कर्म इतन को वीर महान सनमति पर्नुपदेशक वान
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द्वीप अढ़ाई मांहि । तिनपद पंकज प्रनमियों, भवदुखहर सुख दाहि ||३४|| ॥ सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार ॥
लोक शिखर श्रारूढ़ हैं, कर्म काय करि होन । वसु गुणमय जातों सही, ज्ञान अनन्त सुलीन ॥३५॥ मूर्ति रहित श्रानन्दमय, निवसे भूव शिव संत गुण अनन्त के कारण प्रणमों सिद्ध अनन्त ॥ ३६॥
इनके १०० वर्ष के पश्चात् धर्म के प्रकाशक राजधारी विशाल प्रष्टिनाचार्य, क्षत्रिय, जय नाग, सिद्धार्थ सिंहसेन, विजय, बुद्धिल, गंग श्रीर सुधर्माचार्य, ये ग्यारह आचार्य हुए हैं। उनके चरण कमलों में मैं नमस्कार करता हूँ।
इसके २२० वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद धर्म के प्रवर्तक नक्षत्र जयपाल, पाण्ड, दुमसेन व कंस ये पांच ग्यारहों अंगके जानकार हुए। मैं इनकी बन्दना करता हूँ ।
पुनः सौ वर्ष व्यतीत होने पर सुभद्र, यशोभद्र जयवाहू, लोहाचार्य ये अंग पाठी हुए।
उस समय कुछ काल व्यतीत होने पर विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, श्ररुहृदत्त, ये चार अंग पूर्वके कुछ अंशों के जान
कार हुए।
पर इसके पश्चात् हुण्डावसर्पिणी तथा उसके विशेषज्ञोंकी कमी होने पर थी भूतवली घौर पुपदन्त मुनियों ने इन दोनों श्रुत विनष्ट होने के भय से शास्त्रोंकी रचना की, जो पट् खण्डागम नाम से प्रख्यात हैं ।
इन्होंने अपने शास्त्रोंको जेठ सुदी पंचमी के दिन पूर्ण किया था, इससे उनका नाम श्रुत पंचमी पड़ा ।
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