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इस प्रकार वे परमाबगढ़ सम्यग्दर्णन, अन्तिम यथास्यात चारित्र, क्षायिक ज्ञान-दर्शन तथा ज्ञानादि पन लब्धियां पाकर शरीर सहित सयोग केवली जिनेन्द्र हो गये। उस समय वे सर्वज्ञ थे, समरत लोक के स्वामी थे, सबका हि करने वाले थे, सबके एक मात्र रक्षक थे, सर्वदशी थे, समस्त इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय थे और समस्त पदार्थों का उपदेश की वाले थे। चौंतीस अतिशयों के द्वारा उनके विशेष वैभव का उदय प्रकट हो रहा था और आठ प्रातिहार्यों के द्वारा तीर्थकर नामकर्म का उदय व्यक्त हो रहा था। वे देवों के देव थे, उनके चरणकमलों को समस्त इन्द्र अपने मुकूटी पर धारण करते थे, अपनी पमा से उन्होंने समस्त संसार को आनन्दित किया था तथा वे समस्त लोक के माभूषण थे। गति, जीव, समास, गुणस्थान, नय, प्रमाण आदि के विस्तार का ज्ञान कराने वाले श्रीमान चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र आकाश में स्थित थे। सिंहों के द्वारा धारण किया हमा उनका सिंहासन ऐसा सुशोभित हो रहा था कि सिंह जाति ने क्रूरता-प्रधान शूर-वीरता के द्वारा पहले जिस पाप का संचय किया था उसे हरने के लिए मानो उन्हाने भगवान का सिंहासन उठा रक्खा था। समस्त दिशानी का प्रकाशित करती हुई उनके शरीर को प्रभा ऐसी जान पड़ती थी मानों देदीप्यमान केवलज्ञान को कान्ति हो तदाकार हो गई हो। हंसा के कंधों के समान सफेद देवों के चश्मों से जिनको प्रभा की दीर्घता प्रकट हो रही है ऐसे भगवान ऐसे जान पड़ते थे मानों गंगानदी की लहरें ही उनकी सेवा कर रही हों।।
जिस प्रकार सूर्य का एक हो प्रकाश देखने वाले के लिए समस्त पदार्थों का प्रकाश कर देता है उसी प्रकार भगवान की एक ही दिव्य ध्वनि सुनने वालों के लिए समस्त पदार्थों का ज्ञानकर देती थी। भगवान का छत्रत्रय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग जुदा-जुदा होकर यह कह रहा हो कि मास को प्राप्ति हम तीनों से ही हो सकती है अन्य से नहीं । लाल-लाल अशोक वृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों भगवान के प्राश्रय से ही मैं प्रशाकशोकरहित हुआ हूं अतः उनक प्रति अपने पत्रों और फूला के द्वारा अनुराग हा प्रकट कर रहा हो । आकाश से पड़ता हुई फलों की बर्षा ऐसी सुशोभित हो रही थी भानों भगवान की सेवा करने के लिए भक्ति से भरी हुई तारामां की पंबित ही पा रही हो । समुद्र की गर्जना को जीतने वाले देवों के नगाड़े ठीक तरह शब्द कर रहे थे, मानो वे दिशामों का यह सुना रहे हो कि भगवान ने मोह रूपी शत्रु को जीत लिया है । उनको प्रभा के मध्य में प्रसन्नता से भरा हुआ मुख मण्डल एसा सुशोभित होता था मानों आकाश गंगा में कमल ही खिल रहा हो अथवा चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ही हो ।
जिस प्रकार तारागणों से सेवित शरद-ऋतु का चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी प्रकार बारह सभाओं में सेवित भगवान गन्धकूटी के मध्य में सुशोभित हो रहे थे। उनके दत्त आदि तेरानवे गणधर थे, दो हजार पूर्वधारी थे, आठ हजार अवधिज्ञाना थे, दो लाख चार सौ शिक्षक थे, पाठ हजार मनःपर्यय ज्ञान के धारक उनकी सेवा करते थे, तथा सात हजार छह सौ वादियों के स्वामी थे । इस प्रकार सब मुनियों की संख्या अढ़ाई लाख थी। वरुणा आदि तीन लास अस्सी हजार ग्रायिकाएं उनकी स्तति करती थीं, तीन लाख श्रावक और पांच लाख थाविकाथें उनकी पूजा करती थीं । वे असंख्यात देव-देवियों । स्तुत्य थे और संख्यात तिर्यंच उनकी सेवा करते थे। ये सब बारह सभाओं के जीव प्रदक्षिणा रुप से भव्यों के स्वामी भगवान चन्द्रन को घरे हए थे, सब अपने-अपने कोटा में बैठे थे और सभी कमल के मुकुल के समान अपने-अपने हाथ जोड़े हुए थे।
उसी समय जो उत्पन्न हुई भक्ति के भार से नम्र हो रहा है और जिसके मुकुट के अग्रभाग में लगे हुए माण देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा दूसरा ज्ञानेन्द्र इस प्रकार स्तुति करने लगा। वह कहने लगा कि हे भगवान ! जिस रग्नत्रय से आपने उत्कृष्ट रत्नत्रय प्राप्त किया है वहीं रत्नत्रय-सम्पत्ति आप मुझे भी दीजिए।
हे देव ! समुद्र और सुमेरु पर्वत की महिमा केवल अपने लिए हैं तथा महिमा केवल' पर के लिए है। हे भगवान ! माप परम सुख देने वाले हैं ऐसी मापकी स्तुति तो दूर ही रही, अपने प्रात्मत्व रूपी सम्पदा को सिद्ध करने वाले ग्राप सदा समद्धिमान हों मैं यही स्तुति करता हूं । जो मनुष्य प्रापके वचन को अपने वचनों में, प्रापये धर्म को अपने
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