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अन्य चिदानंद अन्य शरीरा ऐसी जिय जब जानं । होय तबै तप सिद्धी संगोत्तम, राग रहित पहिचानं ॥ समय निकलेर अन्ध] [अपूर्ण न वारी ऐसी निज तन देखि सुधीजन, क्यों नहि धर्मविचारी ॥१०॥
आदि दुखोंसे रक्षा करने वाला और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। धर्म ही एक शरण है। दुःखादिकों के निवारण के लिये सदा उसका पालन करते रहना चाहिए। संसार सागर दुखों का यागार है, उसके पार होने के निमित्त रत्नमय का सेवन करना पड़ा ही आवश्यक है। जीव को यह समझ लेना चाहिए कि, मैं अकेला हूं, यदि मेरा कोई सहायक हो सकता है तो वे भगवान जिनेंद्र देव हैं। इस प्रकार शरीर से अपने को भिन्न समझ कर ग्राहम ध्यान में शरीर की ममता से मुक्त हो, संलग्न हो जाना चाहिए। यह शरीर सप्त पातुमयी निधित है, दुध का घर है, ऐसा समझ कर बुद्धिमान लोग धर्म का ही द्याचरण करते हैं। अत्यन्त दुः की बात है कि इस प्रकार का ज्ञान होते हुए भी कुछ लोग संसार सागर में डूबे रहते हैं। किन्तु कर्मों को नाश करने के लिये अभ्यवनको जिन-दीक्षा धारण करनी चाहिये।
२- अशरण भावना
दल-बल देवी-देवता, मात-पिता परिवार मरती विरियां जीव को कोई न राखनहार ॥
इस जीव को समस्त संसार में कोई शरण देने वाला नहीं है। जब पाप कर्म का उदय होता है तो शरीर के कपड़े भी शत्रु बन जाते हैं। जब प्रथम तीर्थकर श्री ऋषिभदेव को निरन्तर छः माह तक बाहार नहीं हुआ, तो उनके जन्मोपलक्ष में १५ मास तक साढ़े तीन करोड़ र प्रतिदिन बरसाने वाले देव कहाँ चले गये थे ? सीता जी के अग्निकुण्ड को अली के द्वारा सीता जी को चुराते समय कहां और वृक्षों तक से उनका पता पूछने वाले
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सो गये थे ? हजारों योद्धाओं के प्राणों को नष्ट करके रावण के बम्चन से सीता जी को छुड़ा कर लाने श्री रामचन्द्र जी का प्रेम गर्भवती सीता जी को वनों में निकालते समय कहां भाग गया था ? देवी-देवता, यन्त्र मन्त्र मात-पिता, पुत्र मित्र श्रादि किसी की भी सारे संसार में कोई शरण नहीं है। यदि पुभ्य का प्रताप है तो शत्रु तक मित्र बन जाते हैं। प्रत्यहीन को समे और मित्र तक जवाब दे देते हैं। सारे संसार में यदि कोई शरण है तो जो मात्मा महन्त भगवान की है वही आत्मा हमारी है। जो गुण श्रन्त भगवान् की आत्मा में प्रकट है. वे ही कुछ हमारी भाषा में हरे हुये हैं होने से भी हमारे सामन द्वारा नवीन और संसारी और हम संसारी जीव भी यदि अपनी श्रात्मा के कर्मरूपी मेल को उनके समान दूर कर दें तो हमारी आत्मा के गुण प्रकट होकर हमारी पर्याय भी शुद्ध होकर भगवान् के समान सर्वज्ञ हो जाये। इसलिये जो ग्रह भगवान् को द्रव्य रूप से, गुल रूप से और पर्याय रूप से जानता है। वह अपनी श्रात्मा और इसके गुणों को अवश्य जानता है, और जो अपनी बात्मा को जानता है, वह निज पर के भेद को जानता है। और जो इस भेद-विज्ञान को जानता है, उसका मोह संसारी पदार्थों से अवश्य छूट जाता है। और जिसकी लालसा अथवा राग द्वेष नष्ट हो जाते हैं, उसका मिथ्यात्व अवश्य जाता रहता है । और जिसका मिध्यात्व दूर हो गया उसको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यक्ज्ञान और उसका चरित्र सम्पर्क चरित्र हो जाता है। इन तीनों रत्नों की एकता मोक्षमार्ग है, जो अविनाशक सुखों और सच्ची शांतिका स्थान है। इसलिये सदा मानन्द ही आनन्द प्राप्त करने के हेतु सारे संसार में व्यवहार रूप से केवल अर्हन्त भगवान् की धरण है।
३- संसार-भावना
दाम बिना निरधन दुखी, तृष्णावश धनवान कहूं न मुख संसार में, सब जग देखो धान ||
यह संसार दुःखों की खान है । संसारी सुख खोड में लिपटा हुआ जहर है। तलवार की धार पर लगा हुआ मधु है। इनसे सच्चे सुख की प्राप्ति मानना ऐसा है, जसे विष भरे सर्प के मुख पर से अमृत झड़ने की प्राशा। जिस प्रकार हिरण यह भूल कर कि कस्तूरी इसकी अपनी नाभि में है उसकी खोज में मारा-मारा फिरता है। इसी प्रकार जीव यह भूल कर कि अविनाशक सुख तो इस की अपनी निज आत्मा का स्वाभाविक गुण है, सुख और शान्ति की खोज संधारी पदार्थों में करता है। यदि संसार में सुख होता तो छ्यानवें हजार स्त्रियों को भोगने वाला, बत्तीस हजार समस्त संवार) का पति
यार्थीका नारा देते है ऐसे और
राजमुखों को लात मार कर संसार को क्यों मागता? जब संसारी पदार्थों में सच्चा श्रानन्द नहीं, तो इनकी इच्छा और मोह-ममता क्यों ?
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एकरव-भावना
के
हो इस जीव को साथ
मेरी
ही नर्म करती है. भले होने का फल भोगती है। जितना करें, परन्तु को हमको हो रहा है उसमें कदाचित कभी नहीं कर सकते। जब वेदनीय कर्म का प्रभाव कम होगा तभी दूसों से कमी
मित्र आदि हमारे को देखकर बाहे
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