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कार्मास्त्रव कर जीव निरन्तर, भवसागर में भास । जात यहै बुध दीक्षा गहु सुध, जाय मुक्ति प्रकास ।। कर्मास्त्रत्रको प्रावत रोको, सोई सबर जानो । जानि सुधि ग्रहको तन तपकर-धारे मुक्ति पयानो .. १०६।।
दुविध निर्जरा कर्म संपूरन, तप कर ताहि खिराब । मुक्ति रमा की बांछा निशदिन, भविजन काल गमावै ।। दुख सुख पाय जगत्रय भ्रगतै, और न कबहूं आवै । तात स जम भजहु सुधोजन; सुख अनन्त लहावे ॥११०।।
यह ध्रुवसत्य है किकर्मों के संबर से मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, अतएव गृहवास त्यागकर मुक्ति के उद्देश्य से संबर का प्रयत्न करना चाहिए । संसार में सत्पुरुषों के समस्त कमों को निर्जरा तप से हुआ करतो है। ऐसा समझकर सदा निष्पार ताम संलग्न रहना चाहिये । वस्तुतः इस लोन जगत को दु.रस का स्थान समझ कर अनन्त सुख प्रदान करने वालो मोक्ष को प्राप्ति के लिये संयम धारण करना चाहिये । मानब शरीर. उत्तम कुल, आरोग्यता, पूर्ण आयु, सुधर्म आदि को प्राप्त कर लेना बड़ा कठिन होगी। चारों घातिया कर्मों का गंबर तथा निर्जरा भी ग्रारमा अकेली ही करके महन्त अथवा प्रघातिया कर्मों को भी काट कर सिद्ध होकर अविनाशी सुखों का अलि ही अानन्द जुटती है । जव अात्मा का कोई दूसरा साथी गङ्गी नहीं है तो संसारी पदाथों, कषायों और परिग्रहों को अपनाकर अपनी प्रात्मा को मलीन करके मंसारी बन्धन दृढ़ करने से क्या लाभ ?
५- अन्यत्व-भावना जहां देह अपनी नहीं, तहां न अपनो कोय । घर सम्पति पर प्रगट थे, पर है परिजन लोय ।। जिस प्रकार म्यान में रहने वाली तलवार म्यान से अलग है उसी प्रकार शरीर में रहने वाली प्रात्मा शरीर से भिन्न है । प्रात्मा अलग है, शरीर अलग है, आरमा चेनन, ज्ञान रूप है शरीर जड़ ज्ञान, शून्य है । आत्मा प्रमूर्तिक है, शरीर मूर्तिमान है । प्रात्मा जीव (जानदार) शरीर अजीव (बेजानदार) है । प्रात्मा स्वाधीन है और शरीर इन्द्रियों द्वारा पराधीन है। आत्मा निज है, शरीर पर है। आत्मा गग-द्वेष, फोघ-मान, भव-खेद रहित है, शरीर को सर्दी गर्मी, भूष-पास आदि हजारों दुग्न लगे हैं । इस जन्म से पहले भी यही प्रात्मा थी, और इरा जन्म के बाद नरक, स्वर्ग, ग्रहन्त अथवा मोन पान करने पर भी यही मामा रहेगरे । अात्मा नित्य है, शरीर नष्ट होने वाला है, प्रात्मा के चोला बदलगे पर यही शरीर यहीं पड़ा रह जाता है। ज प्रत्यक्ष में अपना दिखाई देने वाला यह शरीर ही अपना नहीं, तो स्पष्ट अलहदा दिखाई देने वाले स्त्री, पुत्र, घन सम्पत्ति यादि कैसे अपने हो सकते है ? जब उनका संयोग सदा नहीं रहता तो इनकी मोह-ममता क्या । जिरा प्रकार किरायेदार मकान से मोहन रखकर किराये के मकान में रहता है, उसी प्रकार जीव को शरीर का दाम न बनकर शरीर से जप-तप करके अपनी यात्मा की मलीनता दर करके शुद्धचित् रूप होना ही उचित है।
६--अशुचि-भावना दिप बाम चादर मही हाड़ पिंगरा देह । भीतर या सम जगत में और नहीं घिन गेह ।। आत्मा निर्मल है, इसका रवभाब परम पवित्र है । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, चिन्ता, भय, खेद यादि १४ अन्तरङ्ग तथा स्त्री, पुव, दास-दासी, धन सम्पत्ति अादि इस प्रकार के बहिरङ्ग परिग्रहों से शुद्ध है । शरीर महा मलीन है । इसका स्वभाव ही अपवित्र है, इसके द्वारों से हर समय मल-मूत्र, सून, पीप अादि टपकते हैं । अनादि काल से अनेक बार शरीर को खून धोया परन्तु क्या कोयले को धोने से उसकी कालिमा नष्ट हो जाती है ? यदि मैं अपनी प्रारभा को कपायों और परिग्रहों से एक बार भी शुद्ध कर लिया होता तो कमरूपी मल को दूर करके हमेशा के लिये शुद्धचित् रूप हो जाता। जिन्होंने पानी अात्मा को सांसारिक पदार्थों की मोह-ममता से शुद्ध कर लिया, वे अजर-अमर हो गये, गोक्ष प्राप्त कर लिया, आवागमन के फंदे से मुक्त हो गरे । यदि मैं भी पर पदार्थों की लालसा छोड़ दूं तो पाठों कर्म नष्ट होकर सहज में अबिनाशक सुखा के स्थानमोक्ष को अवश्य प्राप्त कर सकता है।
७-आस्रव भावना मोह नोंद के जोर, जगवासी धूमैं सदा । कर्म चोर पहुं ओर, सरबस लूटें सुध नहीं । सारे ससार में मेरा कोई बुश या भला नहीं कर सकता और न मैं ही किसी दूसरे का बुरा या भला कर सकता हूं । गरे का बुराव होगा जब उसके पाप कर्म हुक्ष्य में प्रागे, केवल मेरे चाहने से उसका वरा नहीं हो सकता । हां किसी का बुरा चाहने से मेरे कर्मों का पाचव हो कर मेरी मारमा मलीन हो, मैं स्वयं अपना बुरा कर लेता हूँ । इसी प्रकार जब मेरे अशुभ कर्म आवेंगे तो दूसरे के मेरा बुरा न चाहने पर भी मुझे हानि होगी । और शुभ कर्मों के समय दूसरों को बरा करने पर भी मुने लाभ होगा। जब कोई मेरी पात्मा का वरा नहीं कर सकता, तो शत्र कौन । और जय किसी दूसरे रो मेरी मात्मा का कल्याण नहीं हो सकता तो मित्र कौन ? मैं स्वयं पांच प्रकार के मिथ्यात्व, बारह प्रकार के अवत पच्चीस प्रकार के कषाय और पन्द्रह प्रकार के योग करके मत्तावन द्वारों से स्वयं कर्मों का पानव करके अपनी आत्मा के स्वाभाविक गुण, अधिनाशक सूख व शांति की प्राप्ति में रोड़ा अटवाने के कारण स्वयं अपना शत्र बन जाता है।