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मति, प्रति और अवधि इन तीन शानों से शोभायमान था। उसको उत्पत्ति के समय अनेक शुभ शकुन हुए थे। उसी समय देवों ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर उसका जन्माभिषेक किया और अजित नाम रखा। भगबान अजितनाथ धीरे-धीरे बढ़ने लगे। वे अपनी बाल सुलभ चेष्टानों से माता-पिता तथा बन्धु वर्ग प्रादि का मन प्रमुदित करते थे। आपस के खेल-कूद में भी जव उनके भाई इनसे पराजित हो जाते थे तब वे इनका अजित नाम सार्थक समझने लगते थे।
भगवान अजितनाथ-जन्म
भगवान ग्रादिनाथ को मुक्त हए पचास लाख करोड़ सागर समय बीत जाने पर इनका जन्म हुआ था। उक्त अन्तराल में लोगों के हृदय में धर्म के प्रति जो कुछ शिथिलता सी हो गयी थी इन्होंने उसे दूर कर फिर से धर्म का प्रद्योत किया था। इनके शरीर का रंग तपे हुए सुवर्ण की तरह था। ये बहुत ही वीर और क्रीड़ा चतुर पुरुष थे। अनेक तरह की कीड़ा करते हए जव इनके अठारह लाख पूर्व वर्ष बीत गये तब इन्होंने युवावस्था में पदार्पण किया। उस समय उनके शरीर की शोभा बड़ी ही विचित्र हो गई थी। महाराज जितशत्रु ने अनेक सुन्दरी कन्यानों के साथ उनका विवाह कर दिया और किसी शुभ मुहूर्त में उन्हें राज्य देकर आप धर्म सेवन करते हुए सद्गति को प्राप्त हुए।
भगवान अजितनाथ ने राज्य पाकर प्रजा का इस तरह शासन किया कि उनके गुणों से मुग्ध होकर वह महाराज जिारात्र का स्मरण भी भूल गई। इन्होंने समयोपयोगी अनेक सुधार करते हुए अपन लाख पूर्व तक राज्य लक्ष्मी का भोग किया अर्थात् राज्य किया।
वैराग्य
एक दिन भगवान अजितनाथ महल की छत पर बैठे हुए थे कि उन्होंने अचानक चमकती हुई बिजली को नष्ट होते देखा। उसे देखकर उनका हृदय विषयों से विरक्त हो गया। वे सोचने लगे कि संसार के हर एक पदार्थ इसी विजली की तरह भाग गर है। मेरा यह सून्दर शरीर और यह मनुष्य पर्याय भी एक दिन इसी तरह नष्ट हो जावेगा। जिस लिए मेरा उसके लिए तो मैंने अभी तक कछ भी नहीं किया खेद है कि मैंने सामान्य प्रज्ञ मनुष्यों की तरह अपनी आय का बहभाग व्यर्थ
श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कंध अध्याय ३ में श्री भगवान आदिनाथ जी का वर्णन
इनि निगदेनाभिष्ट्यमानो भगवाननिमिर्षभो वर्षधराभिवादिताभिवन्दिचरणः सदयसिदमाह ।
श्रीशकदेवजी कहते हैं-राजन ! बर्षाधिपति नाभि के पूज्य ऋत्विजनो ने प्रभु के चरणों की बन्दना करके जब पूर्वोक्त प्रकार से रतुति की, तब देवघेण्ट श्री हरि ने करणावश इस प्रकार कहा।
अहो वताहमुषयो भवद्भिरविनथर्गीभित्ररमसुलभमभियाचितो यदमुष्याऽत्मजो भया सदशो भूयादिति ममाहमेवाभिरूपः वैल्यादयापि ब्रह्मनादो न मुषा भवनि ममैव हि मुखं यद् द्विजदेवकुलम् । तत आग्नीधीशकलयावतरिष्याम्यात्मतुल्यमनुपलभमानः ।
श्री भगवान ने कहा-ऋधियो बड़े असमंजस की बात है। आप सब सत्यवादी महात्मा है, आपने मुझमे यह बड़ा दुर्लभ वर मांगा है नि राजर्षि नाभि के मेरे समाग पुत्र हो। मुनियो ! मेरे रामान तो मैं ही हूँ. क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ। तो भी आहारणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है। इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अशकला से अग्निप्रन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूंगा, क्योंकि अपने समान म कोई और दिखाई नहीं देता।
इति निशामयन्त्या मेरुदेव्याः पतिमभिधान्तर्दधे भगवान । बहिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान परमर्षिभिः प्रसादिताः प्रियचिकीर्षया तदवरोधाय ने मेरुदेव्या धर्मान्दर्शयितृकामो वात रशनाना श्रमणानामृषीणामूर्षमन्थिनां शुक्ला तनुवावततार।
थी शुकदेवजी कहते-महारानी मेरुदेवी के सुनते हुए उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये। विष्णदत्त परीक्षा
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