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वाले, आत्मीय विभूति को प्राप्त हुए और अजित है प्रात्मा जिनकी ऐसे भगवान अजित जिनेन्द्र मुझे कैवल्य लक्ष्मी से युक्त करें।
(१) पूर्व भव परिचय इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण किनारे पर एक मत्स नाम का देश है। उसमें धनधान्य मे सम्पन्न एक सूसीमा नगर है। वहां किसी समय विमलबाहन नाम का राजा राज्य करता था। राजा बिमल बाहन समस्त गणों से विभूषित था । वह उत्साह, मन्त्र और प्रभाव इन तीन शक्तियों से हमेशा न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करता था। राज्य कार्य करते हए भी वह कभी पात्म धर्म संयम, सामाविक वगैरह को नहीं भूलता था। वह बहुत ही मन्द कपायी था।
एक दिन राजा विमल को कछ कारण पाकर वैराग उत्पन्न हो गया। विरक्त होकर वह सोचने लगा-संसार के भीतर कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है । यह मेरी आत्मा भी एक दिन इस शरीर को छोड़कर चली जावेगी, क्योंकि ग्रात्मा और शरीर का सम्बन्ध तभी तक रहता है जब तक कि आयु शेष रहती है। यह आयु भी धीरे-धीरे घटती जा रही है इसलिए प्राय पूर्ण होने के पहले ही अात्म कल्याण की ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए।
इस प्रकार विचार कर वह वन में गया और किन्हीं दिगम्बर यती के पास दीक्षित हो गया। उसके साथ और भी बहुत से राजा दीक्षित हुए थे। गुरु के चरणों के समीप रह कर उसने खूब विद्याध्य पन किया जिससे उसे ग्यारह अंग का ज्ञान हो गया था। उसी समय उसने दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह भावनाओं का चिन्तवन भी किया था जिससे उनके तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृति का बन्ध हो !
विमलबाहन आयु के अन्त में संन्यास पूर्वक मर कर विजय विमान में अहमिन्द्र हग्या । वहाँ उगनी पाय तेतोस सागर की थी। उसका जैसा शरीर शुक्ल था वैसा हृदय भी शुक्ल था। उसे वहां संकल्प मात्र से ही सव पदार्थ प्राप्त हो जाते थे । पहले की वासना से वहां भी उसका चिन विषयों से उदासीन रहता था। वह यहाँ विषयानन्द को छोड़कर आत्मानन्द मंडी लीन रहता था। तेतीस हजार वर्ष बीत जाने पर उसे एक बार पाहार की इच्छा होती थी और तेतीस पक्ष बाद एक बार श्वासोच्छवास हुया करता था। वहाँ उसके शरीर की ऊंचाई एक हाथ को। अहमिन्द्र विमलवाहन के विजय विमान में पहुंचते ही अविध ज्ञान हो गया था जिससे वह उस नाड़ी के भीतर के परोक्ष पदार्थों को प्रत्यक्ष की तरह स्पष्ट जान लेता था। यही अहमिन्द्र आगे चलकर भगवान अजितनाथ हए।
(२) वर्तमान परिचय इसी भरत वसुन्धरा पर अत्यन्त शोभायमान एक साकेतपुरी (अयोध्यापुरी) है। उसमें किसी समय इक्ष्वाक वंशीय काश्यपगोत्री राजा जितशत्रु राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम विजयसेना था। ऊपर जिस अहमिन्द्र का कथन कर आये है उसकी प्रायु जब वहाँ पर छ: माह बाकी रह गई तब यहां राजा जितरात्र के घर पर प्रतिदिन तीन-तीन बार साहे तीन करोड रत्नों की वर्षा होने लगी। वे रत्न इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर वरसाता था। यह अतिशय देखकर जितात्र बहत ही अनान्दित होते थे। इसके बाद जेठ महीने की अमावस के दिन रात्रि के पिछले भाग में जब कि रोहिणी नक्षत्र का उदय था, बदा महत के कुछ समय पहने महारानी विजयसेना ने ऐरावत आदि सोलह स्वप्न देखे और उनके बाद अपने मुह में एक मत्त हस्ती को प्रवेश करते हुए देखा।
सवेरा होते ही महारानी ने स्वप्नों का फल जितशत्रु से पूछा तो उन्होंने देशावधि रूप लोचन से देख कर कहा कि हे देवी! तम्हारे कोई तीर्थकर पुत्र होगा। उसी के पुण्य बल के कारण छह मास पहले से ये प्रति दिन रत्न बरसा रहे हैं और प्राज नापने ये सोलह स्वप्न देखे हैं। स्वप्नों का फल सुनकर विजय सेना प्रानन्द रो फूली न समानो थो । जिस समय इसने स्वप्न में मैह के अन्दर प्रवेश करते हुए गन्ध हस्ती को देखा था उसी समय ग्रहमिन्द्र विमलबाहन का जीव विजय विमान से चयकर उसके गर्भ में प्रवतीर्ण हुआ। उस दिन देवों ने पाकर साकेतपुरी में खूब उत्सव किया था।
धीरे-धीरे गर्भ पुष्ट होता गया, महाराज जितशत्रु के घर वह रत्नों की धारा गर्भ के दिनों में भी पहले की तरह ही बरसती रहती थी। भावी पुत्र के अनुपम अतिशय का स्याल कर महाराज को बहुत आनन्द होता था । जब गर्भ का समय ध्यतीत हो गया तब माघ शुक्ल दशमी के दिन महारानी विजयसेना ने पुत्र रत्न का प्रसव किया। वह पुत्र जन्म ही से
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