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तरह बन्या हो रहा है तथा किसी भूताविष्ट के समान विधारी हो रहा है। जो-जो कार्य श्रात्मा के लिये महितकारी हैं महोदय से यह प्राणी चिरकाल से उन्हीं का आचरण करता चला था रहा है संसाररूपी अटवी में भटक भटक कर यह मोक्ष के मार्ग से भ्रष्ट हो गया है । इस प्रकार चिन्तयन कर वह संसार से भयभीत हो गया तथा मोक्ष मार्ग को प्राप्त करने की इच्छा से धनद नामक पुत्र के लिये अपना ऐश्वर्य प्रदान कर संसार से डरने वाले अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गया। क्रम-क्रम से वह म्यारह अंगणी समुद्र का पारगामी हो गया सो कारण भावनाओं के चिल्लवन में तत्पर रहने लगा घोर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर यन्त्र में उसने समाधिमरण धारण किया।
समाधिमरण के प्रभाव से वह प्राणत स्वयं में इन्द्र हुआ। वहां बीस सागर की उसकी यात्रु बी साहे तीन हाथ ऊंचा शरीर था लया थी, दश दश माह में श्वास लेता था, बीस हजार वर्षे वाद चाहार तथा मानसिक प्रवीचार करता था, धूम्रप्रभा पृथ्वी तक उसका अवधिज्ञान था, विक्रिया बल और तेज की सीमा भी उसके अवधिज्ञान की सीमा के बराबर थी तथा अणिमा महिमा आदि आठ उत्कृष्ट गुणों से उसका ऐश्वर्य बढ़ा हुआ था। वहाँ का दीर्घ सुख भोग कर जब वह यहां आने के लिये उद्यत हुआ तब इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की काकन्दी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री सुग्रीव नाम का क्षत्रिय राजा राज्य करता था। सुन्दर फान्ति को धारण करने वाली जमरामा उसको पटरानी थी उस रानी के देवों के द्वारा पतिशय श्रेष्ठ रत्नवृष्टि थादि सम्मान को पाकर फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन प्रभात काल के समय मूल-नक्षत्र में जय कि उसके नेष कुछ-कुछ बाकी बची हुई निद्रा से मलिन हो रहे थे, सोलह स्वप्न देखे स्वप्न देखकर उसने अपने पति से उनका फल जाना और जानकर बहुत ही हर्षित हुई ।
मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा के दिन जैत्रयोग में उस महादेवी ने वह उत्तम पुत्र उत्पन्न किया। उसी समय इन्द्रों ने देवों के साथ प्राकर उनका क्षीर सागर के जल से अभिषेक किया, आभूषण पहनाये और कुन्द के फूल के समान कान्ति से सुशोभित शरीर की दीप्ति से विराजित उन भगवान् का पुष्पदन्त नाम रखा थी चन्द्रप्रभ भगवान् के बाद जद न करोड़ सागर का अन्तर बीत चुका था तब श्री पुष्पदन्त भगवान् हुए थे। उनकी आयु भी इस अन्तर में शामिल थी। दो लाख पूर्व की उनकी आयु थी, सौ धनुष ऊंचा शरीर था और पचास लाख पूर्व तक उन्होंने कुमार अवस्था के सुख प्राप्त किये थे ।
अथानन्तर प्रच्युतेन्द्रादि देव जिसे पूज्य समझते हैं ऐसा साम्राज्य पाकर उन पुष्पदन्त भगवान् ने इष्ट पदार्थों के संभोग से युक्त सुख का अनुभव किया उस समय बड़े-बड़े पूज्य पुरुष उनकी स्तुति किया करते थे सब स्त्रियों से इन्द्रियों से सुख मिलता और इस राज्य से जो भगवान् सुविधिनाथ को सुख मिलता था और भगवान् सुविधिनाथ से उन स्त्रियों को जो था उन दोनों में विद्वान लोग किसको बड़ा ग्रथवा बहुत कहें ? भगवान् पुण्यवान् रहें किन्तु मैं उन स्त्रियों को भी बहुत पुण्यात्मा समझता हूं क्योंकि मोक्ष का सुख जिनके समीप है ऐसे भगवान् को भी वे प्रसन्न करती बीहा कराती थीं वे भगवान् स्वर्ग के श्रेष्ठ सुख रूपी समुद्र में मग्न रहकर पृथ्वी पर आये थे इससे कहना पड़ता है कि यथार्थ भोग्य वस्तुए यही वो जो कि भगवान् को अभिलाषा उत्पन्न कराठी बी-अभीष्ट लगती थीं।
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तो जो भगवान् अनन्य बार महमिन्द्र पद पाकर भी उसने संतुष्ट नहीं हुए वे यदि मनुष्य लोक के मुख से संतुष्ट हुए। कहना चाहिये कि सब सुखों में वहीं सुख प्रधान था। इस प्रकार प्रेमपूर्वक राज्य करते हुए जब उनके राज्यकाल के पचास हजार पूर्व घोर अट्ठाईस पूर्वोक्त बीत गये सब वे एक दिन दिशाओं का अवलोकन कर रहे थे। उसी समय उल्कापात देखकर उनके मन में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ कि यह उल्का नहीं है किन्तु मेरे मनादिकालीन महामोहं रूपी सरकार को नष्ट करने वाली दीपिका है। इस प्रकार उस उस्का के निमित्त से उन्हें निर्मल सात्मज्ञान उत्पन्न हो गया। वे स्वयंवृद्ध भगवान् इस निमित्त से प्रतिबुद्ध होकर तत्व का इस प्रकार विचार करने रूप है। कर्म रुपी इन्द्रजालियों ने ही इसे उठाकर दिखलाया प्राणो सामने रखते हुए असत् पदार्थ को सत् समझने लगते हैं। वाली है और न कोई पदार्थ मेरा है मेरा तो मेरा आत्मा ही है,
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लगे कि श्राज मैंने स्पष्ट देख लिया कि यह संसार विडम्बना काम, शोक, भय, उन्माद, स्वप्न चोरी बादि से उपद्रत हुए इस संसार में न तो कोई वस्तु स्थिर है, न शुभ है, न कुछ देने यह सारा संसार मुझसे जुदा है। और मैं इससे जुदा हूं. इन दो
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