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शब्दों के द्वारा ही जो कुछ कहा जाता है वही सत्य है, फिर भी पादचर्य है कि मोहोदय से शरीरादि पदार्थों में इस जीव की आत्मीय बुद्धि हो रही है।।
शरीरादिक ही मैं हूं मेरा सब शुभ है, नित्य है इस प्रकार अन्य पदार्थों में जो मेरी विार्यय-बुद्धि हो रही है उसी से मैं अनेक दुःख देने वाले जरा, मरण और मृत्यु रूपी बड़े-बड़े भयंकर इस संसार रूपी समुद्र में भ्रमण कर रहा हूं। ऐसा विचार कर वे राज्य-लक्ष्मी को छोड़ने की इच्छा करने लगे। लौकान्तिक देवों ने उनकी पूजा की। उन्होंने सुमित नामक पुत्र के लिए राज्य का भार सौंप दिया, इन्द्रों ने दीक्षा कल्याणक कर उन्हें घेर लिया। वे उसी समय सूर्यप्रभा नाम की पालकी में सवार होकर पुष्पकवन में गये और मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के सायंकाल के समय बेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया । वे दूसरे दिन आहार के लिए शैलपूर नामक नगर में प्रविष्ट हुए। वहां सुवर्ण के समान कान्ति वाले पुष्पमित्र राजा ने उन्हें भोजन कराकर पचाश्चर्य प्राप्त किये।
इस प्रकार छमस्थ अवस्था करते हुए उनके चार वर्ष बीत गये । तदनन्तर कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय मुल नक्षत्र में दो दिन का उपवास लेकर नागवृक्ष के नीचे स्थित हुए और उसी दीक्षाबन में घातिया कर्मरूपी पाप कर्मों को नष्ट कर अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हो गये। चतुर्णिकाय देवों के इन्द्रों ने उनके अचित्य वैभव की रचना की-समवसरण बनाया और वे समस्त पदार्थों का निरूपणा करने दिव्य ध्वनि से मुशोभित हुए। वे सात ऋषियों को धारण करने वाले विदर्भ भाटि टासी गणधरों से सहित थे, पन्द्रह सौ श्र तकेवलियों के स्वामी थे; एक लाख पचपन हजार पांच सौ शिक्षकों के रक्षक थे. आठ हजार सौ अवधि-ज्ञानियों से सेबित थे, सात हजार केवल ज्ञानियों और तेरह हजार विक्रिया द्धि के घारको मेवेष्टित समात हजार पांच सौ ममः पर्ययज्ञानियों और छह हजार छह सौ वादियों के द्वारा उनके मंगलमय चरणों की पूजा होती थी. इस प्रकार वे सब मिलाकर दो लाख मुनियों के स्वामी थे, घोषार्या को प्रादि लेकर तीन लाख अस्सी हजार आयिकाओं से सहित थे, दो लाख श्रावकों से युक्त थे, पांच लाख श्राविकानों से पूजित थे, असंख्यात देवों और संख्यात तिर्यचों से सम्पन्न थे, इस तरप बारह राभानों से पृजित भगवान् पुष्पदन्त प्रार्य देशों में बिहार कर सम्मेदशिखर पर पहुंचे और रोग निरोध कर भाद्रशुक्ल अष्टमी के दिन मूल नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार मुनियों के साथ माक्ष को प्राप्त हो गये। देव पाये और उनका निर्वाण कल्याणक कर स्वर्ग चले गये।
जिन्होंने स्वयं चलकर मोक्ष का कठिन मार्ग दूसरों के लिए सरल तथा शुद्ध कर दिया है, जिन्होंने चित्त में उपशम भाव को धारण करने वाले भक्तों के लिए स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग प्राप्त करने का उत्तम विधि बतलाई है, जो मोक्ष-लक्ष्मी के स्वामी है, जिनके दांत खिले हुए पुष्प के समान हैं जो स्वयं देदीप्यमान हैं और जिनका मुख दाँतों को कान्ति से सुशोभित
ऐसे भगवान पुष्पदन्त को हम नमस्कार करते हैं। हे देव ! आपका शरीर शान्त है, वचन कानों को हरने वाले हैं, चरित्र सब का उपकार करने वाला है और आप स्वयं संसार रूपी विशाल रेगिस्तान बीच में 'सघन' छायादार वृक्ष के समान हैं प्रतः हम सक अापका ही प्राथय लेते हैं।
जो पहले महापद्म नामक राजा हुए, फिर स्वर्ग में चौदहवें कल्प के इन्द्र हुए और तदन्तर भरतक्षत्र में महाराज सुविधि नामक नौवें तीर्थकर हुए ऐसे सुविधिनाथ अथवा पुष्पदन्त हम सबको लक्ष्मी प्रदान करें।
भगवान् शीतलनाथ जिनका कहा हा समीचीन धर्म, कर्मरूपी सूर्य की किरणों से संतप्त प्राणियों के लिये चन्द्रमा के समान शीतल हैशान्ति उत्पन्न करने वाला है वे शीतलनाथ भगवान् हम सबके लिए शीतल हों-शान्ति उत्पन्न करने वाले हों। पुटकरबर द्वीप के पूर्वार्ध भाग में जो मेझ पर्वत है उसकी पूर्व दिशा के विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नामक देश है। उसके ससीमा नगर में पद्मगुत्म नाम का राजा राज्य करता था । राजा पद्मगुत्म साम, दान, दण्ड और भेद इन चार उपायों का ज्ञाता था, सहाय, साधनोपाय, देशविभाग, कालविभाग और विनिपात प्रतीकार इन पांच अंगों से निर्णीत संधि और
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