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इहि विध नरक चैन पल नाहि, तपै दुख दावानल माहि । मार मार मिश दिन सौ कर, क्षेत्र महा दुरगन्धा धरै ॥१६॥ सर्व समूद जलको जो पाय, पीवत नाहीं प्यास बुझाय । लहै न पानी बून्द समान. दहे निरन्तर तनदुख खान ॥१७॥ मकल अन्न जो पावै सोय, तौभी भूख न उपशम होय । निल समान आहार न लहै, बहु प्रकार के दुख को सहै ॥१७॥ बात पित्त कफ आदिक रोग, प्रायु अन्त हिरदै मैं शोग । कटु तूमो सों काटुरस फांस, त्यों मृत जोग शरीर कुवास ।।१७२।। लोह पिप जोजन इकलाख, डारत हाय क्षिन में खाख । जैसी है अति उष्ण मुभाय, तेसो शीत कहो जिनराय ॥१७॥
दोहा
पंकप्रभा पर्यन्त लौं, बाही उष्णता सोय । धूमप्रभा में जानिये, शीत उष्ण पदोय ।।१७५|| छठी सातमी भूमिमें, केबल शीत सुमाय।ताकी उपमा कोन है महा विपनि अधिकाय ।।१७।। महा दुःख इत्यादि सब, मन बच काय प्रचण्ड । क्षेत्रतनों परभाव यह देइ परस्पर दण्ड ।।१७६३। रौद्रध्यान नश्या किसन, आगु समुद तेतीस । धनुष पांचस तुग तनु, वरन्यो श्री जिन ईश ।। १७७।।
चौपाई
अब बलभद्र मोहवश जास हरि वप लिये फिरौ छह मास । देव मान सम्बोधं जब, निहनीकरण पाइयो तब ।।१७।। ता वियोग सो विजयकुमार, पुष्यवन्त बुधवन्त अपार । राज्यभार निज सुतको दियो, गुरु पंपापु महानत लियो ।॥१७॥ दुविध प्रकार नियो "प घोरएक यानादी शसि जातिकर्म रिपुरेदी ताम, भये अनन्त चतुष्टय नाम ||१८० देव संघ अचिन सो भये, पीछ पंचम गति को गये । निरूपम निराबाध अविकार, तीन लोक बंदन जगतार ॥१८॥
यही कारण है कि पूर्व के महान पापों के उदय से प्राज मेरे समक्ष सारी विपत्तियां आ खड़ी हुई हैं। मैं अत्यन्त दःखी हैं। अब मैं किस की शरण में जाऊं तथा इस स्थल पर कौन मेरी रक्षा करेगा।
इस प्रकार को चिन्तायों से युक्त श्रिपट का जीव अभी करुण कन्दन हो कर रहा था, कि उसके सामने प्राचीन नारकियों का एक बड़ा दल पा गया । वे एक नवीन नारकी को देखकर इसको मुद्गर आदि तोहण शास्त्रों से मारने लगे। कोई दुष्ट उसके नेत्र निकालने लगा, काई मंग फोड़ने लगा, कोई आंते निकालने लगा। इस प्रकार वे निर्दयी उसके शरीर के टकडेटकई कर कढ़ाई में प्रोटाने लगे । गर्म कढ़ाही में डाल देने के बाद उसका शरीर जल गया, जिससे उसे बड़ी दाह उत्पन्न हई। उस दाह की शान्ति के लिए उसने वैतरणी नदी में डुबकी लगायो । वहां जल के खारेपन और उसकी दुर्गन्धि से वह और भी व्याकुल हुना । पश्चात् वह बिधाम करने लिए प्रसिपत्र बन गया। पर वहां कौनसा सानिमय स्थान था। वहाँ तलवार जैसे तीक्ष्ण बक्षा के पनों से उसका शरीर छिन्न-भिन्न हो गया। इस स्थान की भयानक ज्वाला से दु:खी हो वह खण्डित शरीर वाला मारकी शान्ति प्राप्त करने के लिये पहाड़ की गुफाओं घुमा । वहां भी कर नारकियों ने विक्रिया के जोर से सिंह का शरीर धारण कर उसे खाना प्रारम्भ किया।
इस प्रकार कवियों की कल्पना से भी परे उपमा रहित दुःखों को वह भीगने लगा। यद्यपि उसे ऐसी प्यास लगी थी जो समुद्र से भी वुझने वाली नहीं थी, पर उसे एक बूद भी जल नहीं मिलता था। संसार भर का अन्न खाकर भी तुप्त न होने वाली भूख से पीड़ित होने पर भी उसे एक दाना भी प्राप्त नहीं था उस स्थान पर इतनी शीत थी कि यदि लाख योजन के प्रमाण का एक गाला वहाँ डाल दिया जाय तो शीत बर्फ में उसके सैकड़ों टुकड़े-टुकड़े हो जायगे । इस प्रकार के दावों को भोगता हुआ वह नारकी उस क्षेत्र में उत्पन्न हुअा जो पांच प्रकार का है। उसे कृष्ण लेश्या परिणाम दुख देने वालो तेतीस सागर की प्रायु मिली।