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गीतिका छन्द यह भांति सुचरण जोग करके, भोग भूगते अतिधनै । फिर, जगत अचित भए निहत्रे, मुक्तिपद पायौ तितं ।। कुचरण विपाक जु पादयौं, हरि सप्तमै थानक पयौँ । सो जान भवि सम्यक्त्व दृढ़, मन मार सुचरण प्राचयौं ।। १८२॥ दुखनाशक मुक्ति दाइक, कर्म अरि विध्वंसकं । अन्त ते जु अतीत गुणनिधि, भवहरण पददंसके ।। सुर मुक्ति सुखकर शरण सबको, जगतपति अचित हिये । निज धर्म करतातीर्थ प्रतिमन, "नवलशाह" प्रणामियी ॥१३॥
इधर त्रिपष्ट नारायण के वियोग से दुःखी होकर अत्यन्त पुण्यवान बलभद्र ने समस्त परिग्रहों का परित्याग किया तथा सांसारिक मुखों से विरक्त होकर जिन-दीक्षा धारण कर ली। वे मुनिराज जिनेन्द्र भगवान मुख को पवित्र जिनबाणी का अध्ययन करने लगे : 'उनकी धर्म-निष्ठा बड़ी प्रबल हुई। उन्होंने प्रक्षेकय म रिन्द्रमःTI- का धार्मिक सन्देश सनाया और मोक्ष-सुख प्रदान करने वाला उपदेश दिया । वे मुनि संघ के साथ वन, पर्वतों और सुरम्य देशों में विहार करने लगे।
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