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गीतिका
इति भांति उर संवेग घर प्रभुराज सुख त्यागे घनं । पुन बाल दीक्षा आदरी जिन, विविध तप लाग्यो भने || ४७४ || जीती परीषद सहि उपयुग घातकर्म विनाशियों यह जगत कर्म निवारिये मुहि नवलशाह प्रनामियो ।४०५॥
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बोहा
वीर करण हनि वीर प्रभु, वीर नमीं वरवीर वीर शकति परगट करी, तुम गुण साहस धीर ॥ ४०६ ॥
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जीवों मुहट मणिके समान शोभायमान हैं, उन त्रैलोक्य तारण समर्थ श्री महावीर प्रभुको में उनके उत्तम गुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार एवं स्तुति करता हूँ।
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वैत्यवृक्ष भूमिः .. ४६५८१०
सबदार
४३७
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