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इस घड़सठ दिन पर मान, जब चाहे शारम् थान व
रत्नावती इकतालीस, न्यारा वा प्रोषध तीस ॥६४॥ मध्यम रत्नावलि व्रत और प्रोषध सगँ बहत्तर ठीर । शुकलपंचमी छट इकदशी, कृष्ण दोज अर छट द्वादशी ||६|| द्वि रत्नावलि व्रतहि वखान, त्रय सय छासट दिन परवान । प्रोषध सबै तोनर्स घरं, छवास वहां पारने करें ।। ६६ ॥ मुक्तावलि प्रोप उनवास करें पारने तेरह जास मुक्तावलि नव उपवास, ताको व्यौरी चार जु मास ||२७|| भादों सुदि सप्तम इकदशी, क्वांर वदी षष्ठी त्रोदशी । घर सुदिकी एकादश जान, कार्तिक वदि वारस पहिचान ॥६८॥ सुदि की छह अरु एकादशी, गहून वदि अष्टमि मन वसी । यही मास सुधि तीज प्रकाश, सो श्रत पालो नव उपवास ॥ ६६ ॥ अब दुकाल व्रत अवनीश प्रोषध सब इकसय छवीस । मास मास में बेला तास, शुक्ल पक्ष महि चार सुहास ॥१००॥
इत्यादिकोंको पार करते हुए धाकाश मार्गचे ही माने बहने लगे। प्रभुके शान्त परिणाम के प्रभाव के कारण हरिण, मृग इत्यादि वन्य जीवों को दुष्ट सिहादि हिंसक पशुमोसे कुछ भी जम न था प्रभु, नोकर्म वर्गणाके बाहार से ही पुष्ट थे, एवं वितथे कर्मों के नाथ हो जाने के कारण कलाहार (ग्रास भोजन) प्रायः बन्द हो चुका था। समन्तु चतुष्टय के साथ इन्द्रादि प्रभु को घेरे हुए थे। प्रभु का आसाता कर्म उदय अत्यन्त मन्द था इसीलिए मनुष्यों के द्वारा किये गये उपसर्ग
चलता न देखकर वह सुदर्शन के चरणों में गिर पड़ा। सुदर्शन ने कहा, "यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो मेरे साथ वीर वन्दना के लिए चलो”। अर्जुन बोला "वहां तो ये कि जैने सम्राट् आनन्द लेने से और तुम्हारे जैसे भक्त जाते हैं, मुझ जैसे पापी और मीच जाति को कौन
देगा? सुदर्शन में कहा, 'वही तो भ० महावीर की विशेषता है कि उनके समवशरण के दरवाजे पापों से भी पानी और सोच से भी च चाण्डाल तक के लिए खुले हैं तुम्हारे लिए वहां वही स्थान है जो महाराजा थे पिक के लिए" यह सुनकर अर्जुन भी सुदर्शन के साथ चल दिया। समवशरण के अहिंसामग्री वातावरण और विरोधी पशुओं तक को आपस में प्रेम करते देखकर अर्जुन भूल गया कि मैं पापी हूँ। उसने विनयपूर्वक भ० महावीर को नमस्कार किया और उनके उपदेश से प्रभावित होकर जैन साधु हो गया। कि आश्चर्य में पड़ गया कि जिस दुष्ट व कलगिरि के हजारों चाकात से सारा देश परेशान था, जिसके कारण उसको गिरफ्तार करने के लिये उसने हजारों रुपये अर्जुन को लूटमार का इनाम निकाल रखा था फिर भी किसी में इतना हौसला न था कि उसे पकड़ सकें, वह वीर-शिक्षा से इतना प्रभावित हुआ कि सारे दोषों को छोड़कर एकदम जैनमुनि हो गया 1
महाराजा चेटक पर दोर प्रभाव
वैशाली के राजा चेटक इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय-रश्न थे। वह थे बड़े पराक्रमी और वीर योद्धा सुभद्रा देवी इनकी रानी थी। वे दोनों इतने पक्के जैनी थे कि इन्होंने संकल्प कर रखा था कि अपनी पुत्रियों का विवाह अर्जुन से नहीं करेंगे। जिनेन्द्र भगवान की पूजा भक्ति तो वह
भूमि तक में नहीं भूलते थे । उनके धन, दत्तभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त, सिंहभद्र, सुकुम्भोज, अकम्पन, सुपतंग, प्रभंजन और प्रभास नाम के दश पुत्र और भगवती सुप्रभा प्रभावती, बेलना, ज्येष्ठा और चन्दना नाम की सात पुत्रियाँ भी मिला प्रियकारिणी कुठपुर के राजा सिद्धार्थ से यही थी और श्रीवर्द्धमान महावीर जी की माता ही थी। मृगावती कौशाम्बी के राजा शतानीक की रानी थी सुप्रभा दशा देश के राजा दशरथ से ब्याही थी। प्रभावती सिपुसौवीर अथवा कच्छ देश के महाराजा उदयन की महारानी थीं। चेलना जी मगध के सम्राट थेसिक बिम्बसार की पटरानी की कि जिनके प्रभाव से महाराजा श्रेणिक बौद्धधमं छोड़कर जैनी हो गया था । सति चन्दना देवी और ज्येष्टा आजन्म ब्रह्मचारिणी रही थी। यह सारा परिवार जनवर्मी था, ज्येष्ठा, चन्दना और बेलना तो भ० महावीर के संघ में जैन साधु हो गई थी। जब भ" महावीर का समवशरण वंशाली आया तो चेटक ने पूछा, मनुष्य बलवान अच्छा है या कमजोर ? वीरवाणी में उन्होंने सुना, "दयवान और स्वाववान का बलवान होना उचित है ताकि वह अपनी शक्ति से दूसरों की सहायता और रक्षा कर सके, परन्तु पापियों मत्याचारियों और हिंसकों का कमजोर होना ही ठीक है ताकि वह दूसरों पर अत्याचार न कर सकें।" महाराजा चेटक पर भ० महावीर का इतना प्रभाव पड़ा कि वे समस्त राजमुखों को लातभार कर यह जैन साधु हो गये ।
सेनापति सिंहभद्र पर वीर प्रभाव
सिनामक लिच्छवि सेनापति निगल नाउपुक्त ( महावीर ) के विप्यं थे।
श्री ग्रंथ महाव (S. BE) XVII. 116. सिंहभद्र वैशाली के विशाल राजा चेतक के महायोद्धा सेनापति थे । जव भ० महावीर का समवशरण वैशाली में आया तो यह भी
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