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श्री जिनेश के मन्दिर जाय, महती पूजा तहां कराय । यात्रा कर धर्म के काज, बन्दै गणधर मुनि जिनराज ।।१।। होय धर्म सौ अर्थ अनूप, ताकर बाढ़े सुत्र स्वरूप । अघ त्यागे पावे निर्वान, सदा सासुतौ अविचल थान ॥११॥ वहु विध करं धर्म गुणमूर, दिन दिन बढ़ सुक्ख अंकूर । यही जान भवि धर्म हि गहो, इह भव परभव के दुख दहो ॥१२।। शुभ प्राचार करन परवीन, जिन भाषित मत में लवलीन । मन संकल्प न यतें कोय, सर्व अवस्था में दृढ़ सोय ॥१३॥ ता फल महाभोग उपभोग, अगरी राज मंगदा जोग ! जिदिन काल गमाव सार, सुख सागर की केलि मझार ॥१४॥ एकदिना परमारथ कान, गये भव्यजन सहित समाज । 'पौष्टिल' जो है गुरू परवीन, बन्दै तिनक पद गुण लीन ॥१५॥ अष्ट द्रव्य ले पूजा करी, जथाशक्ति मुनि थति विस्तरी । भक्ति सहित शिर नयौ महीप, बैठी पुन मुनि पाय समोय ॥१६॥ ता हित पर-अरथी मुनिराय, भाषौ जती धर्म समुदाय । तत्व पदारथ आदिक सार, तत्व पदारथ शिव अधिकार ॥१७॥ मास्थल सम यह संसार, तामें दुःख अनन्त अपार । दोष अन्त तँ रहित सदोव, कैसे कहां बसें भव जीव ॥१८॥ अरू जो दुख संसार न होय, बहु संपूरण सुखत तह जोय। तो पुन सुतप गहैं किम काज, जिनवर आदि सबै मुनिराज॥१६॥ क्षुधा प्यास कामादिक कोप, प्रजुलित निश दिन जिय चित लोप । जहां कुटिलता तन धारत, धीरज धरे तहीं बुधवंत ॥२०॥ इन्द्रियादि तस्कर सब जोय, धर्म पदारथ चोरत सोय। वैसे तहो ऐकाको वीर, चित प्रोडल तन साहस धीर ॥२१॥ पराधीन चल भोगी जीन, ताकी सेवं भव जन कौन? दुख अनन्त परिपूरण सोय, भवसागर को वधक जाय ॥२२॥ इति प्रकार वच सून बड़भाग, मन में बाढ़यौ परम विराग । तब उठि मुनिको मायौ शीस, तज्यो परिग्रह चउ अरू बीस ॥२३॥
तरहसे पालन करने लगा। वह नन्दराजा पर्व के दिनों में प्रारम्भ रहित उपवास करता हुअा, मुनि वर्ग को बड़ी भक्तिसे प्रति दिन आहार दान दिया करता था। धर्म की वृद्धि के लिये वह जिनालयों में जिनेन्द्र देव की पूजा और गणधरादि योगियों की यात्रा में भी जाया करता था। वस्तुत: धर्म से मनोवांछित फल की प्राप्ति हुया करती है। उससे संसार के ऐहिक सख उपलब्ध होते हैं और संसारसुख की इच्छा त्याग देने से अविनश्वर सुख की प्राप्ति होती है। ऐसा विचार कर उसने लोक-परलोक में सख प्राप्ति के उद्देश्य से समस्त सुखका मूल धर्मका सेवन करना आरम्भ किया।
वह स्वयं शुभ प्राचरण करता था और दूसरे को प्रेरणा भी करता था। धर्म के फल से प्राप्त हए समग्र सखों का उपयोग दिया. वह समय व्यतीत करने लगा। निर्मल चारित्र के सम्बन्ध से राजा-नन्द को उत्तम भोगों की उपलब्धि हई।
एक बारकी घटना है। वह नन्द राजा भव्य जीवों को साथ लेकर धर्मोपदेश श्रवण करने के उदेश्य से पर वन्दनाके लिये गया। वहां जाकर वह भक्ति पूर्वक प्रष्ट द्रव्यों से उनकी पूजा वंदना कर उनके चरणों के निकट बैठ गया। पर श्रोता समझ कर उसको धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया। उन्होंने कहा-बुद्धिमान ! उत्तम क्षमा के द्वारा त श्रा पालन कर । उत्तम क्षमा उसे कहते हैं जिस से दुष्ट जनों के उपद्रव होते रहने पर भी धर्म का विनाश करने वाले कोध की मानिन दोधर्म-वद्धि के लिये बुद्धिमानों को मार्दव का पालन करना चाहिए । मार्दव उसे कहते हैं-मन, वचन काय को कोमल करके मान का परित्याग करना। सत्पुरुषों को चाहिये कि वे प्रार्जव धर्म का पालन करें। वह आजब धर्म मन की कुटिलता को त्याग देने औरत होता है। सर्वदा सत्य बोलना चाहिए। ऐसा वचन कभी भी न उच्चारण करे जिससे किसी धर्मात्मा को कष्ट पहुंचे असत्य भाषण वा सर्वथा त्याग कर दे । इन्द्रिय, अर्थ आदि वस्तुओं की ओर से लोभी मन को रोक कर शौच का पालन करना कहा गया है। जल द्वारा किये गये शौच को धर्म का अंग कदापि न समझे। स-स्थावर छ: प्रकार के जीवों की रक्षा कर
मन पर नियन्त्रण कर धर्म-सिद्धि के उद्देश्य से संयम धारण करना चाहिये । धर्म के कारण शास्त्र अभय दानादि रूप त्याग
का पालन करे। सख प्राप्ति के लिये अकिंचन धर्म का पालन श्रेयस्कर होता है। इसकी प्राप्ति परिग्रहों के त्याग से होती है। पति की याकांक्षा रखने वालेको ब्रह्मचर्य का पालन नितान्त आवश्यक होता है। गृहस्थ के लिये अपनी स्त्री को छोड कर सबका त्याग कहा गया है और मुनि के लिये तो सभी स्त्रियों का ही त्याग बताया गया है।