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तियों के कारण जापानीन तीर्थ को लरेडकर मध्यम पाबा का ही तीर्थ मान लिया गया है। यहां पर क्षेत्र की प्राचीनता का। द्योतक कोई भी चिन्ह नहीं है । अधिक से अधिक तीन सी वा में इस क्षेत्रका तीर्थ स्वीकार किया गया है। यहां पर समवशरण मन्दिर की चरणपादुका ही इतनी प्राचीन है, जिससे इसे मान पाठ सौ वर्ष प्राचीन कह सकते हैं। मेरा तो अनुमान है कि इस चरणपादका को कहीं बाहर से लाया गया होगा। यह अनुमानतः १०वों शतो की मानमहातो है, इस पादका पर किसी भी प्रकार का कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । इस चरणपादुका का प्राचीनता के अाधार पर ही कुछ लोग इसी पावापुरी को भगवान की निर्वाणभूमि बतलाते हैं। और वास्तव में यही अमला पावा है जलमन्दिर में जो भगवान महावीर स्वामी की चरणपादुका है, वह भी कम से कम छ: सौ वर्ष प्राचीन है। ये चरणचिन्ह भी पुरातन होने के कारण गलने लगे हैं। यद्यपि इन चरणों पर भी कोई लेख नहीं है । भगवान महावीर स्वामी के चरणों के अगल बगल में गुधर्म स्वामो प्रार. गोनम स्वामों के भी चरणचिन्ह है।
पायापुरी में जल मन्दिर मंगमरमर का बनाया गया है। यह मदर एक मालान के मध्य में स्थित है। मंदिर तक जाने के लिए लगभग ६०० फुट लम्बा लाल पत्थर का पुल है। मन्दिर को अपना और शिल्पकारी दर्शनीय है। धर्मशाला में एक विशाल मन्दिर नीचे है, जिसमें कई वेदियां हैं। नीचे सामने वाल। वेदी में शेनवर्ण पाषाण की महावीर स्वामी को मुलनायक प्रतीमा है। इस बंदी में कूल १४प्रतिमाए विराजमान हैं। मामने वाली वेदो के वाहाथ की ओर तीन प्राचीन प्रतिमाए हैं। इन प्रतिमानों में धर्मचक्र के नीचे एक और हाथी पीर दुमरी और वेल के चिन्ह यकिन किये गये हैं । यद्यपि इन मूर्तियों पर कोई शिलालेखादि नहीं है, फिर भी कला की दृष्टि से ये निश्चयतः ८-६ सी वर्ग प्राचीन है । मन्दिर में प्रवेश करने पर दाहिनी घोर प्राचीन पाश्वनाथ की प्रतिमा है। इस प्रतिमा में धर्मच के दोनों ग्रोर दो मिह अविन विये गये हैं।
ऊपर चार मन्दिर है-12) शोलापुर वालों का (२) श्री जगमग बीबी का मन्दिर (३) श्री बा. हरप्रसाद दासजी पारा वालों का मन्दिर और (८) जम्बप्रमाद जी सहारनपुर वालों का मन्दिर । ये मभी मन्दिर आधनिक हैं, प्रतिमा भी प्राधनिक हैं।
चम्पापुरी
चम्पापरीक्षेत्र में बारहवें तीर्थकर बामपूज्य स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया है। बिलोयपणति में बताया गया है कि फाल्गन कृष्णा पंचमी के दिन अपराह्नकाल में अश्विनी नक्षत्र के रहते छ: सौ एक मुनियों से युक्त वासुपूज्य स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया । यद्यपि उत्तरपुराण में वासुपूज्य स्वामी का निर्वाण स्थान मन्दारगिरि बताना गया है। कुछ एतिहासज्ञों का यह कहना है कि प्राचीनकाल में चम्पानगर का अधिक विस्तार था, अतः यह मन्दारगिर उस समय इसी महान् नगर को सीमा में स्थित था। भगवान वासुपूज्य इस चम्पानगर में एक हजार वर्ष तक रहे थे। श्वेताम्बर प्रागम ग्रन्थों में बताया गया है कि भगवान महावीर ने यहां तीन चातुमास व्यतीत किये थे। चम्पा के पास पूर्णभद्र चत्य नामक प्रसिद्ध उद्यान था, जहा महावीर करते थे। श्रोणिक के पुत्र अजातशत्रु ने इसे मगध की राजधानी बनाया था। वासुपूज्य स्वामी के चम्पा में ही अन्य चार कल्याणक भी हुए।
चम्पापुर भागलपुर में ४ मोल और नाथनगर रेलवे स्टेशन से मिला हुआ है। जिस स्थान पर वासुपूज्य स्वामी का निर्वाण हम्रा माना जाता है, उसी स्थान पर एक विशाल मन्दिर और धर्मशाला है। मन्दिर में पांच वेदियां है-चार बेदियां चारों कोनों में और एक मध्य में । मध्य वेदी में प्रतिमानों के आगे बासुपूज्य स्वामी के चरण काले पत्थर पर अंकित किये गये हैं। इन चरणों के नीचे निम्न लेख अंकित हैं।
स्वस्ति श्री जय श्रीमंगल संवत १६६३ दाक: १५५६ मनुनामसम्बत्सरे (संवत्सरे) मार्गशिर (मार्गशीर्ष शुक्ला २ शना भमहतं श्री मुलमंघ सरस्वतीगच्चवलात्कारगणे कुन्दकुन्दान्वये भट्टारक श्री कुमुदचन्द्रस्तत्पटले में श्री धर्मचन्द्रोपदेशात् जयपुर गभस्थानेवघेरवाल जाति से० श्रीपासा भा० से. श्रीमूनोई तथा प्रसथी ५ नामा० श्री सजाईमत चम्पावासुपूज्यस्य शिखरबद्ध प्रासाद कारण्य बिठा व "विद्याभूषणः प्रतिष्ठितं वद्धिता थी जिनधम्यं ।
मेरा अनुमान है कि जिस स्थान पर आजकल यह मन्दिर बना है उस स्थान पर वासुपूज्य स्वामी के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चार कल्याणक हुए हैं। निर्वाण स्थान नो मन्दागिरि ही है।
पूर के दो जिनालयों में से बड़े जिनालय के उत्तर-पश्चिम के कोने की वेदी में श्वेत वर्ण पाषाण की वासुपूज्य
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