________________
के समवसरण आये थे । भगवान महावीर ने यहां वर्षाकाल व्यतीत किया था तथा इनके प्रमुख भक्त इसी नगर निवासी थे । राजगृह के पंचहाड़ों का वर्णन तिलोयपण्णति, धवलाटीका, जयधवलाटीका, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, ऋणुतत्तरोवबाई दांगसूत्र, भगवती सूत्र, जम्बु स्वामी चरित्र, मुनिसुव्रतकाव्य, नायकुमार चरिउ, उत्तरपुराण आदि ग्रन्थों में उपलब्ध हैं । तिलोपत्ति में इसे पंचदौलपुर नगर कहा गया है। बताया गया है कि राजगृह नगर के पूर्व में चतुष्कोण ऋषिशैल, दक्षिण में त्रिकोण वेभार, नैऋत्य में त्रिकोण विपुलाचल, पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशा में धनुषाकार छिन्न एवं ईशान दिशा में पाण्डु नाम का पर्वत है ।
खंडागम की धवला टीका में वीरसेन स्वामी ने पंच पहाड़ियों का उल्लेख करते हुए दो प्रचीन श्लोक उद्धृत किए हैं, जिनमें पंच पहाड़ियों के नाम क्रमशः ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुल, चन्द्र और पाण्डु आये हैं ।
हरिवंश पुराण में बताया गया है कि पहला पर्वत ऋषिगिरि है, यह पूर्व दिशा की ओर चौकोर है, इसके चारों ओर भरने निकलते हैं । यह इन्द्र के दिग्गजों के समान सभी दिशाओं को सुशोभित करता है। दूसरा दक्षिण दिशा की भोर वैभारगिरि है, यह पर्वत त्रिकोणाकार है। तीसरा दक्षिण पश्चिम के मध्य त्रिकोणाकार विपुलाचल है, चौथा बलाहक नामक पर्वत धनुष के ग्राकार का तीनों दिशाओं को घेरे शोभित है, पाँचवां पाण्डुक नामक पर्वत गोलाकार पूर्वोत्तर मध्य में है । ये पांचों पर्वत फल पुष्पों के समूह से युक्त हैं। इन पर्वतों के बनों में वासुपूज्य स्वामी को छोड़ शेष समस्त तीर्थकरों के समवशरण प्राये हैं। ये वन सिद्धक्षेत्र हैं, इनकी यात्रा को भव्य जीव आते हैं।
राजगृह सिद्ध भूमि है, यहां भगवान महावीर का विपुलाचल पर प्रथम समवशरण लगा था । श्रवसर्पिणी के चतुर्थकाल के अन्तिम भाग में ३३ वर्ष माह और १५ दिन श्रवशेष रहने पर श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन अभिजित नक्षत्र के उदित रहने पर धर्म तीर्थ की उत्पत्ति हुई थी। इस स्थान से अनेक ऋषि मुनियों ने निर्वाण पद प्राप्त किया है। श्रद्धेय श्री नाथूराम प्रेमी ने अपने अनेक प्रमाणों द्वारा नंग अनंग आदि साढ़े पांच करोड़ मुनिराजों का निर्वाण स्थान यहाँ के ऋष्यति को बतलाया है । आजकल यह ऋद्र चतुर्थ पहाड़ स्वर्णगिरि या सोनागिर कहलाता है । श्री प्र ेमी जी ने निर्वाण भक्ति के पद्म को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत कर यंग अनंग कुमार का मुक्ति स्थान राजगृह की पंच पहाड़ियों में श्रमगिरिसोनागिरि को ही सिद्ध किया है। पूर्वापर सम्बन्ध विचार करने पर यह कथन युक्तिसंगत प्रतीत होता है ।
-
राजगृह के विपुलाचल पर्वत से श्री गौतम स्वामी ने निर्वाण लाभ किया है । उत्तर पुराण में बतलाया गया हैगत्वा विपुलशब्दादिगिरी प्राप्स्यामि निर्वृतम् । मन्निवृतिदिने लब्धां सुधर्मा श्रुतपारगः ॥
उत्तर पुराण पर्व ७६ श्लोक ५१
और जम्बू स्वामी ने भी विपुलाचल पर्वत से ही निर्वाण प्राप्त किया है । केवली राजगृह से ही निर्वाण प्राप्त किया है। सेठ प्रीतंकर ने भगवान महावीर से मुनि दीक्षा घोवरी पूत गन्धा ने यहीं की नील गुफा में सल्लेखना व्रत ग्रहण कर शरीर त्याग
अन्तिम केवली श्री सुधर्मस्वामी घनदत्त, सुमन्दर और मेघरथ ने भी लेकर यहीं आत्म कल्याण किया था। किया था।
मन्दिर हैं। नीचे छोटे मन्दिर में श्यामवर्ण कमल पर तीन मन्दिर हैं। पहले मन्दिर में चन्द्रप्रभु की स्वामी की श्वेतवर्ण की मूर्ति वेदी में विराजमान
पहला पहाड़ विपुलाचल है। इस पर्वत पर चार दिगम्बर जैन के ऊपर भगवान महावीर स्वामी की चरण पादुका हैं। थोड़ा ऊपर जाने चरण पादुका प्राचीन है। मन्दिर भी प्राचीन हैं। मध्यवाले मन्दिर में चन्द्रप्रभु हैं। वेदी के नीचे दोनों ओर हाथी खुदे हुए हैं, बीच में एक वृक्ष है। बगल में एक और सं० १५४८ की श्वेतवर्ण की चन्द्र प्रभुस्वामी की मूर्ति है । यह मूर्ति ई० सन् ८ वीं शती की प्रतीत होती है । अन्तिम मन्दिर की वेदिका में श्वेतवर्ण की महावीर की स्वामी की मूर्ति विराजमान हैं। बगल में एक प्रोर श्यामवर्ण मुनिसुव्रतनाथ की मूर्ति और दूसरी ओर उन्हीं के चरण हैं। मूर्ति प्राचीन और चरण नवीन हैं ।
दूसरे रत्नगिरि पर दो मन्दिर हैं एक प्राचीन मंदिर है और दूसरा नवीन नवीन मंदिर को श्रीमती ब्र० पं० चन्दाबाई जी ने बनवाया है इसमें मुनिसुव्रत स्वामी की श्यामवर्ण की भव्य और विशाल प्रतिमा विराजमान है। पुराने मन्दिर में श्यामवर्ण महावीर स्वामी की चरण पादुका है।
८११