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इससे स्पष्ट है कि वासुपूज्य स्वामी का निर्वाण स्थान यही है, जहां प्राजकल चम्पापुर का मन्दिर स्थित है, वहां से भगवान का निर्वाण नहीं हुआ है। इन श्लोकों में बताया गया है कि रजतमौलि नामक नदी के किनारे की भूमि पर स्थित मन्दारगिरि के शिखर पर स्थित मनोहर नामक उद्यान से भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन सन्ध्या समय विशाखा नक्षत्र में ४ मनिराजों के साथ बासुपूज्य स्वामी ने निर्वाण पद प्राप्त किया । भौगोलिक दृष्टि से पता लगाने पर ज्ञात हमा कि प्राचीन रजतमोपल नदी आज कल भी रजत नाम से प्रसिद्ध है। भाषा विज्ञान की अपेक्षा से रजतमोलि का रजत नाम सहज संभव है। अतएव वासुपूज्य स्वामी का यही मन्दारगिरि निर्वाण स्थान है।
पहाड़ के ऊपर दो वहुत प्राचीन जिनालय हैं, इनकी स्थापत्य कला ही इस बात को साक्षी है कि ये मन्दिर आज से कम से कम १० हजार वर्ष प्राचीन है । बड़े मन्दिर की दीवार को चौड़ाई ७ फोट है, जो बौद्ध काल को स्थापत्य कला सूचक
। पहाड के बड़े मन्दिर में वासुपूज्य स्वामी के श्यामवर्ण के चरण चिन्ह हैं। ये चरण भी बहुत प्राचीन हैं, पाषाण एवं शिल्प की दृष्टि से ई० सन की ८-९वीं सदी के अवश्य हैं। पहाड़ पर के छोटे मन्दिर में तीन चरणपादुकाएं है। ये पादुकाएं भी प्राचीन हैं तथा निर्वाण प्राप्त मुनिराजानों की हैं। बड़े मन्दिर के भीतरी दरवाजे के ऊपर एक प्राचीन मूति उत्कोणित है । पास की एक गुफा में मुनिराजों के चरण चिन्ह अंकित हैं।
मन्दारगिरि से लगभग दो मील की दूरी पर बौंसी गांव में दि जैन धर्मशाला एवं विशाल भव्य मन्दिर है। यात्रियों के ठहरने का प्रबन्ध यहीं पर है। धर्मशाला के मन्दिर में वी० सं० २४६६ को गेहुनां वर्ण को वासुपूज्य स्वामी की पद्मासन मति और भी कई मतियां एवं चरण पादुकाएं हैं। मन्दिर के बाहिरी दरवाजे के ऊपर दोनों ओर दो पाषाण के हाथी अपने पडादण्ड को ऊपर की ओर उठाये खड़े हुए हैं, बीच संगमरमर पर दि जैन मन्दिर लिखा गया है। बड़े शिखर के नीचे माजिक में कटी हुई फूल पत्तियों का शिखर बहुत ही भव्य और चित्ताकर्षक है। मंदिर के सामने बना हुआ छोटा संगमरमर का चतरा दूर से देखने पर बहुत ही सुहावना मालूम पड़ता है।
यहां एक अन्य प्रधुरा मन्दिर पड़ा हुआ है। इस मंदिर को पत्थर से बनवाने की व्यवस्था श्री सेठ तिलकचन्द कस्तूर चन्द वारामती (पूना) वालों ने की थी, पर कालचक्र के प्रभाव से यह मंदिर अभी अपूर्ण ही पड़ा है।
नेतरों के लिए भी यह क्षेत्र पबित्र और मान्य है। यहाँ सीताकुण्ड और बोख कुण्ड नामक दो शीतल जल के कुण्ड हैं। पर्वत की तलहटी में पापहरणी पुष्करणी नामक तालाब हैं। कहा जाता है कि समुद्र मन्थन के समय मथानी का कार्य इसी पर्वत से लिया गया था।
बीच में कई शताब्दियों तक जैनों की शिथिलता के कारण यह तीर्थ अन्धकाराछन्न हो गया था। २० अक्टूबर सन् 388 में सबलपूर के जमींदारों से इसकी रजिस्ट्री करायी गई है। इस तीर्थ को पुन: प्रकाश में लाने का श्रेय स्व. वा. देवकमार जी आरा, स्व० राय बहादुर केसरे हिंद सखीचन्द्र जी कलकत्ता एवं श्री बाबू हरिनारायण जी भागलपुर को है। यव यह तीर्थ दिनों दिन उन्नति करता जा रहा है। राजगृह
यह स्थान पटना जिले में है। ई० आर० रेलवे के बख्तियारपुर जंक्शन से विहार लाइट रेलवे का अन्तिम स्टेशन और यहां पंचपहाड़ी की तलहटी में दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन धर्मशालाए एवं जिन मंदिर हैं। पाँचों पहाड़ों पर भी दिगम्बर और श्वेताम्बर मन्दिर हैं ।
राजगह का पूर्व इतिहास अत्यन्त गौरव पूर्ण है। इस नगर को कुशात्मज वसु ने गंगा और सोन नदी के संगम पर घसाया था। महाराज श्रेणिक ने पंचपहाड़ी के मध्य में नवीन राजगृह नगर को बसाया, जो अपनी विभूति और रमणीयता में अद्वितीय था। महाराजबसू से लेकर थेणिक तक यह उत्तर भारत का शासन केन्द्र रहा है। जब श्रेणिक के पुत्र अजानशत्रु ने मगध की राजधानी चम्पा को बनाया, उस समय किसी कारणवश प्राग लग जाने से यह नगर नष्ट हो गया।
राजगृह का भगवान् महावीर से पहले भी जैन धर्म का सम्बन्ध रहा है। रामायण काल में भगवान मुनिसुबत नाथ के गर्भ, जन्म, तप, और ज्ञान ये चार कल्याणक यहीं हुए थे। पश्चात् इसी वंश में अर्द्धचको प्रतिनारायण जरासिन्धु हमा । यह महापराक्रमी और रणशूर था, इसके भय से यादवों ने मथुरा छोड़कर द्वारिका का प्राश्रय ग्रहण किया था। राजगह के साथ जैन धर्म का इतिहास जुड़ा हुआ है। यहां भगवान आदिनाथ पोर वामपूज्य के अतिरिक्त अवशेष २२ तीर्थंकरों
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