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सो प्रभु तत्व पदारथ कहै, सो जथार्थ गनधर सरदहै । द्वादशांग तब रचना धार, ग्यारा अंग पूर्व दश चार ॥३५३।। तिनके नाम कहीं सूत उक्त, पद अश्लोक वरण संजुक्त । प्राचासंग प्रथम जानिये, सुत्रकृतांग दुती मानिये ।।३५४।। तीजो स्थानक कहिये अंग, चौथी है रामवाय अभंग । पंचम व्याख्याप्रज्ञप्ति विशाल, छठमा ज्ञातकथा गुनमाल ॥३५शा सातम अंग उपासकध्ययन, आठम अन्तःकृतगुन रयन । नवम अनुत्तर कहिये सोइ, दशम प्रश्न व्याकरण जु होइ ।।३५६।। विपाक सूत्र एकादश जान, बारम दृष्टिबाद सुख-खान । ताके पूर्व चतुर्दश कहै, तिनके नाम किमपि प्रब लहै ।।३५७।। प्रथम पूर्व उतपाद बखान, अग्रायणी दुतिय पहिचान । धीरजवाद तृतिय अवलोइ, अस्तिनास्ति पुन चौथो होइ॥३५८|| ज्ञान प्रवाद पंचमौ जान, कर्म प्रवाद पष्टमी मान । सत्यप्रवाद सप्तमौ गनौ, प्रात्मप्रवाद अष्टमी भनी ॥३५॥ प्रत्याख्यान नवम गुण सार, दामो पूरब विद्या धार | कल्याणबाद गेरम सरदह, प्राणवाद बारम मन गहै ।।३६०।। क्रियाविशाल प्रयोदश कहौ, लोकबिन्दु चौदम सरवही । नामावलि जानौ यह सार, सकल भेद पागम विस्तार ||३६१।। द्वादशांग पद सब परमान, इक सय बारह कोडि बखान । लाख तोरासो अंठानवो, सहस पंचदश अधिक भनो ॥३६२।।
अथ सर्वपद श्लोक
पंचहजार जु कोड़ा कोडि, ऊपर और साततं जोड़ि । शठ कोड़ा कोड़ी जान, पैसठ लाख कोड़ि परवान ।।३६३॥ सहस संतावन कोडि सहित, तातें अधिक और सुन भीत | बाइस कोडि पचासो लाख, सौ अरु साढ़े सात जु भाख ॥३६४॥ द्वादशांग पद सकल विचार, यह अश्लोकनि संख्या व धार । तामें एक पदहि विस्तार, कहि अश्लोक वरण अवसार ॥३६शा कोडि इंक्वानव पाठ जु लाख, ७, सीआई इस माख । ३० अश्लोकाह संख्या सोइ, द्वात्रिशत अक्षर तस होइ ॥३६६|| अब इक पद के अक्षर जित, भाषौं जिनशासन परिमित । एक सहस छह सौ चौंतीस, इतने कोड़ि कहे जगदीश ।।३६७॥ लाख तिरासी सात हजार, अठसया य अठ्ठासी धार । अब मुन चार वेद परकास, द्वादशांग गभित गुरु जास ॥१६
चार वेद-अनुयोगों का वर्णन
पद्धड़ि छन्द
प्रथमानूयोग है प्रथम वेद, जामें शठ पद कथन भेद । है दुतिय वेद करणानुयोग, लोकाप्रलोक प्रगट्यो मनोग ॥३६६।। चरणानयोग त्रय वेद जान, जहं मोक्ष पन्थ कारण बखान । द्रव्यानुयोग बहुवेद भास, षट द्रव्यन भेदाभेद जास ।। ३७०॥
दोहा
द्वादशांग रचना रची, इन्द्रभूति गणनाय । सो विधि कबि संक्षेप कर, वरन्यौ पागम पाय ।।३७।।
श्री गौतम गणधरको आश्चर्य जनक परिणाम शुद्धिके द्वारा उसी समय सातों ऋद्धियाँ प्रकट हुई उनकी मानसिक विकेही कारण शीघ्र ऐसा हो सका। हे प्राणियों, इस संसार में अपने मनको परम पवित्र रखने से ही सज्जनों की अभीष्ट मिटि हो सकती है। यदि सवतोभावेन मनकी शुद्धि हो जाय तो क्षण मात्र में तो केवल ज्ञानरूपी अत्यन्त दूलभ महा-ऐश्वर्य प्राप्त हो सकता है। श्रावण शुक्ला तृतीयाके दिन प्रातःकाल श्रीमहावोर प्रभुके तत्वोपदेशके द्वारा मनको शुद्धि हो जाने के कारण इन इन्द्रति गणधरके हृदय में सब अंगपूर्वक के पद अर्थ रूपमें बदल गये। ज्ञाना-वरण के कुछ नष्ट प्राय हो जाने पर तिले अन्तिम प्रहरके समय वृद्धि में सय अंग पूर्व प्रकट होनेरो मति प्रादि चार ज्ञानोंको पाकर अपनी अत्यन्त तीक्ष्ण वृद्धिके द्वारा इन्द्र तिने सब भव्य जीवोकी कल्याण कामनारो सम्पूर्ण शास्त्रकी रचनाकी और उसके बाद रात्रिके अन्तिम प्रहरके समय, भविष्य में धार्मिक प्रवृत्तिके प्रचारकी इच्छासे पद वाक्य रूप द्रव्यों का निर्माण किया।
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