________________
गाम, बेलुव, कुसीनारा में विचरते रहे थे। बनारस में ही उन्होंने शिष्यों को 'उपसम्पदा' देने-शिष्य बनाने की आज्ञा दे दी थी। गयासीस में जब मौजद थे तब उनके शिष्यों की संख्या एक हजार थी। पहिने ही राजगह में जव पहुंचे तब मंजय के शिष्य सारीपुत और मौद्गलायन उनके मत में दीक्षित हुए। इनके विषय में हम पहिले ही लिख चुके हैं। इसके बाद ही उन्होंने 'उपाध्याय और प्राचार्य पद नियुक्त किये परन्तु इन दोनों के कर्तव्य एक थे। यह एवं अन्य श्रियायें म० बुद्ध ने अन्य मतों में प्रचलित रीतियों के प्रभावानुसार स्वीकृत की थीं। इसी समय उन्होंने शाक्यवंशी व्यक्तियों के लिए खास रियायत करने का भो आदेश दिया था। फिर द्वितीय बार जब श्रावस्ती से वे राजगह आये तो राजा श्रेणिक विम्बसार के प्राग्रह से तित्थियों' की भांति अष्टमी, चतुदों और पूर्णमासी के दिनों पर एकत्रित होकर उपदेश देने का आदेश भिक्षयों को दिया। इसके बाद फिर जब वह राजगह माये तब लोगों के बात करने पर उन्होंने वर्षा ऋतु मनाने के लिए भिक्षुओं को एक स्थान पर ठहरने का नियम बनाया। यह नियम भिक्षुओं द्वारा पहिले ही स्वीकृत था। उपरान्त अन्धविन्द में जब म बुद्ध थे तब उनके साथ १२५० भिक्षु थे। फिर जब आप यहां से कुसीनारा को वे गये थे तो उनके साथ केवल २५० भिक्ष रह गये थे । यहां से जब आम होते हुए वे श्रावस्ती पहुंचे, तय भिक्षों में परस्पर मतभेद और विवाद खड़ा हो गया था और जिस समय वे कौशाम्बी में मौजूद थे, उस समय उनके झगड़े ने विकट रूप धारण कर लिया था। यहां तक कि म० बद्ध के समझाने पर भी वे न माने और उनसे कह दिया कि आप शान्ति से अपने प्राप्त सुख का उपभोग कीजिये। हम लोग अपने आप निक्ट लगे। म० बद्ध दनको भला बुरा कहबार वालकलोकारगाम को चले गये। यहां पर एक बागबान ने बगीच में जाने से उनको टोका था। फिर भ०बद्ध पारिययक और श्रावस्ती को गये थे । अन्तिम बस्सा उन्होंने वैशाली के निकट अवस्थित बेलु च में बिताई थी और अन्ततः कसीनारा में वह प्राप्त हुए थे । वेलुव में कोई कठिन रोग से ये पीड़ित हए थे । उस रोग को उन्होंने अपने योगबल से शमन किया था । इस रोग से मुक्त होकर जब वे फुसीनारा की जा रहे थे, तो मार्ग में चंड लुहार को यहां उन्होंने अन्तिम भोजन किया। अंतत: कुसीनारा में उन्होंने शिष्यों को उपदेश दिया था और आनंद से कहा था कि :
'अतएव हे आनंद ! तुम अपने आप अपने तई प्रकाश रूप वनो। अपने आपको ही अपनी शरण समझो। किमो बाह्य शरण का आसरा न ताको । सत्य को प्रकाश रूप जानकर उसको ही अच्छी तरह ग्रहण करो। उसी सत्य को ज्ञानदाता जाना । अपने आपके सिवा किसी अन्य में शरण की लालसा मत रक्खो ।"
इसी अवसर पर प्रानंद ने किसी प्रख्यात नगर चम्पा आदि में अपने अंतिम दिवस व्यतीत करने का आग्रह म० यद्ध से किया था। इस पर म० बुद्ध ने कुसीनारा की पूर्व विभुति का स्मरण कराकर आनंद को शांत किया था। वस्तुतः यहां पर उन्होंने पानंद के तीन मोह को अपने में से हटाने के लिए यह सब उपदेश दिये थे। आखिर उन्होंने अपने अन्तिम जीवन का समय निर्दिष्ट करते हुए ग्रानंद से कहा था :---
'पानंद ! अव तुम कुसीनारा में जाकर कृसीनारा के मल्ल राजानों से कहो, आज के दिन, हे वासेट्ठमण, रात्रि के अन्तिम पहर में तथागत का सर्व अन्तिम मरण होगा। हे बासेट्टगण, कृपालु हो और यहा ऋपाल होगी। इसके बाद अपने यापको यह कहने का अवसर न दो, हमारे ही गाँव में तथागत की मृत्यू हई और हमने तथागत के अंतिम समय में दर्शन न कर पाये।
इस ही के अनुरूप में म० बद्ध का जीव उस रात्रि को इस नश्वर शरीर को त्याग गया। उनके अनुयायियों ने उनके शरीर की अन्याठ क्रिया की। उपरान्त बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि लिच्छबि, मल्ल, कोल्यि, शक्य आदि क्षत्रिय राजाओं ने उनके शरीर की भस्म को मंगवाकर, उसको रमति में स्तूप बनवाये थे। इस तरह म० बद्ध का धर्म प्रचार और अन्तिम समय पूर्ण हुना था।
भगवान महावीर ने भी अपने समवशरण की विभूति सहित सर्वत्र विहार किया था। दिगम्बर और श्वेताम्बर शास्त्रों में इसमें भी अन्तर अवश्य है, परन्तु यह कुछ विशेष महत्व नहीं रखता। श्वेताम्बर शास्त्र उसका उल्लेख वर्षा ऋतू व्यतीत करने के रूप में करते हैं । दिगम्बर कहते हैं कि तीर्थकरावस्था में वर्षा ऋतु व्यतीत करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि तीर्थकर भगवान का शरीर इतना विशुद्ध हो जाता है कि उसके द्वारा किसी प्रकार की हिसा होना बिल्कुल असम्भव है। अतः श्वे के अनुसार भगवान महावीर ने प्रथम चतुर्मास प्रस्थिक ग्राम में, फिर तीन चतुर्मास चम्पा और ष्टष्टि चम्पा ग, बारह वैशाली और वाणिज्यग्राम में, चौदह राजगह और नालन्द में, छै मिथिला में, दो भद्रिका में, एक बालमिका ग, एक पनितभूमि में, एक श्रावस्ती में, एक पावा में राजा हस्तिपाल की कचहरी में व्यतीत किये थे। और दिगम्बरी शास्त्र इस प्रकार बतलाते हैं कि जिस प्रकार भब्यवत्सल भगवान ऋषभदेव ने पहिले अनेक देशों में बिहार कर उन्हें धर्मात्मा बनाया था उसी प्रकार भगवान महावीर ने भी
७७६