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सिद्ध हं. शुद्ध , अनन्तज्ञान प्रादि गुणों का घारक हूं, शरीर प्रमाण हूं, नित्य हूं, असंख्यात प्रदेशी है तथा अमूर्तिक हूं। सिद्ध भक्ति के रूप से पहले सविकल्प अवस्था में सिद्ध भी जैसे भध्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं उसी तरह अपनेअपने उपादान कारण से अपने प्राप ठहरते हए जीब पुदगलों को अधर्म द्रव्य ठहरने का सहकारी कारण होता है। लोक व्यवहार से जैसे छाया अथवा पृथ्वी ठहरते हुए यात्रियों आदि को ठहरने में सहकारी होती है उसी तरह स्वयं ठहरते हुए जीव पुदगलों के ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी होता है। इस प्रकार अधर्म द्रव्य का लक्षण बताया है।
उनको वैक्रियिक शरीर रहता है उज्वल शरीर अलंकार भूषण से सहित गले में पुष्प माला अनविस होते हैं। इस जन्म के जीव को जन्मते ही बहु प्रत्यय अवधि ज्ञान होता है।
प्राकाश का वर्णन प्रकृत्या प्रसन्नताप मगत्वा खलमृताम्
अनुत्सृज्य सताम् व्रतमयतक्त स्वल्पयति तत्वह। आकाशानन्तः प्राकाश अनन्तानन्त प्रदेश से एक अखण्ट द्रव्य इस आकाश के अत्यन्त बीच में ३४३ घन यर्जु प्रमाण क्षत्र प्रवेश का अकृत्रिम नित्य निश्चल स्वयं स्रष्ट स्वभाव से ही निश्चित स्थिति से युक्त अनादि निधन पुरुषाकार लोकाकाश है। जैसे एक मनुष्य दोनों पांव पसार कर दोनों हाथ कमर में फैला कर कटि पर रख कर खड़ा हो जाता है उसी प्रकार यह लोकाकाश का प्राकार है। वेत्रासन के समान अर्थात् वेंत की कुर्सी के नीचे के भाग के समान अधो लोक है। चक्र के समान वर्तुल प्राकार मध्य लोक प्राकार है। मृदंग के समान उर्द्ध लोक का प्राकार है। इधर १४ यर्जु ऊचा कर दक्षिण रज्जु पूर्व पश्चिम में नीचे के भाग में ७ रज्जु विस्तार वहां से कम से कम होते हुए मध्य भाग में एक रज्जु विस्तार है। वहाँ से क्रम से कम होते हुए लोकान्त स्वर्ग में पांच रज्जु विस्तार पुनः वहां से कम होते हुए ऊपर के भाग में १ रज्जु विस्तार रहता है। यह धनोदधि धनवात और तनवात ऐसे विस्तार वाले फिर इन तीन बातों में से स्थित होकर जसे सीख बाँधते हैं उसी प्रकार चारों ओर से घिरा हया है। ये तीन वातवलय प्राकाश के पाश्रय से स्थिर हैं अर्थात् इन तीन लोक के घनोदधि वातवलय का अाधार वनोदधि वातवलय का घनवातवलय का प्राधार धनवातवलय को तन वातवलय का आधार और तन. वातवलय के प्राकाश प्राधार, आकाश को प्राकाश ही स्वयं प्राधार अर्थात् प्राधार और प्राधेय ये दोनों स्वयं आकाश है। इस प्रकार यह अनादि काल से स्वतन्त्र हैं। ये किसी के पाश्रय से नहीं है। इसका कोई भी कर्ता धर्ता नहीं हैं आकाशस्य समागाह अवगाहन शक्ति लेना आकाश है। यह सम्पूर्ण पदार्थ को स्थान देने के कारण प्राकाश कहलाता है। इस प्रकार यह परस्पर आश्रित है । प्रत्येक वातवलय २० हजार योजन विस्तार वाले हैं। तीनों वातवलय ६० हजार योजन विस्तार वाले हैं । घनोदधि वातवलय उड़द के रंग के समान है। घनवातवलय गौ मूत्र के समान है। और तनुषातवलय अति सुक्ष्म वर्ण वाले अभिव्यक्त है इसका वर्णन करना अशक्य है। इस प्रकार से अनादि है इसका कोई कर्ता धर्ता नहीं है इस प्रकार की जिनेन्द्र भगवान की वाणी है । ये जैन सिद्धांत के अनुसार परम्परा अनादि काल से वृद्धि और ह्रास को प्राप्त हुये चले पा रहे हैं। १ लोकाकाश
लोकयन्ते इन्चन्ते जीवादया पदार्थः यत्रासौ लोकाः तदपरो लोका यत्र पुण्यपाप फल लोकनम् स्वलोकः लोकतीति व लोकः।
इस प्रकार लोक का अनेक प्रकार से विवेचन किया गया है। जीवाजीवादि पदार्थ अपने-अपने पर्याय भेद से युक्त जहां देखने में माता है वह लोक है जन्म-मरण जरा पुण्य पाप दुःख सुख का जिसमें जीय को अनुभव होता है उसका नाम लोक है वह अधो मध्य और ऊर्ध्व इस प्रकार तीन प्रकार का है। इस तीन लोक में और उसमें रहने वाले जीवादि पदार्थ को जो अवकाश देने वाले हैं उसको माकाश कहते हैं । इस प्रकार लोकाकाश का वर्णन किया गया है।
इस लोकाकाश के बीच में नीचे से लेकर अन्त तक १४ राज ऊंचा एक रज्जु चौड़ा चतुषकोण आकृति के एक तृष्णा है जिन इन्द्रिय अादि सम्पूर्ण जीव यहीं जन्म लेने के कारण इसे बसना कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव मात्र दोनों ठिकाने में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार इस त्रसना में सम्पूर्ण जीव उत्पन्न होकर जन्म-मरण सुख दुःख आदि का अनुभव करते हैं।