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तुम बिन भटके भवि संसार, तुम बिन और कौन आधार । भो जिनेश तुम दीन दयाल, तुम बिन गहैं कुगति को जाल ॥११॥ यह विधि थति कीनी अधिकाय, बैठो जिनकोठा चितलाय । बह प्रकार पूजा विस्तरी, अष्ट द्रव्य ले भागे धरी ॥११॥ उठकै बहरि नम्यौं जिन पाय, बार बार भुवि शीस लगाय । तात फिर नर लोक हि प्राय, वंदै तिर्थकर मुनि राय ॥११३॥ नमस्कार कर बैठो तहाँ, मन में गनै पंच पद महा। तत्व पदारथ भेद उतंग, सुनै धर्म सूचक सरवंग ॥११४।। तहं ते उठि निज थानक आय, सब विभूति देखी मन लाय। जहां सभा मंडप निरभंग, दिपै चारहू दिशा उतंग ॥११॥ सो रतन कर खचित महान, देखत लार्ज कोटक भान । प्रागे मानस्तम्भ विशाल, मानी मान हरै तत्काल का दश विध सभा जहाँ सुखदाय, बैठे सबै देव मन लाय । ताके मध्य जु गिधदाकार, रत्नमयो सिंहासन सार ||११७ ताप बैठ्यो इन्द्र पुनीत, सकल अप्सरा गावे गीत । सुर गन्धर्व नचे बहु वेष, दुख चिन्ता व्यापै नहि लेश ।।११।। सबको देय धर्म उपदेश, होय धर्म सों मोख महेश । धर्म बिना पावै दुख कूप, लहै धर्म सो सुक्ख स्वरूप को या प्रकार सुख भगतै घने, सो सही विध कहत न बनं । सा है तन सम चतुर सठान, वपु यि सो छिन छिन ठान ।।१२०॥ अस्थि चर्म मल मूत्र न कोय, शुक्र रुधिर अर स्वेद न होय । ये ही सप्त धातु नहि अंग, निद्रा रहित नैन निरभंग । षट मारक की अवनि पचण्ड, वस्तु चराचर देखि अखण्ड । तितनी धरै विक्रिया सोय, बाइस सागर प्रायू जो होय ॥१२॥ बर सहस बाइस परजंत, मनसाहार लेय गुनवंत । जब बीते एकादश मास, तब सुगन्धमय लेय उसास ।।१२३।। जन मन गीत रसवान, कबई देख नृत्य महान । कबहूं वन क्रीड़ा को जाय, इहि विध भोग कर समुदाय ॥१२४॥
एक एक देवी अप्सराओं की तीन तीन सभाय हैं । वहाँ पर नृत्य-गीत बाजा बजाने आदि को कलायों को शिक्षा दी जाती है। प्रथम परिषद में पच्चीस अप्सराये हैं। दूसरो में पचास और तीसरो में सी हैं । आपके पुण्योदय से ये समय दिव्य सम्पदायें प्रापके समक्ष उपस्थित हैं। अब आप स्वर्ग राज्य के अधिपति बनें और अनुपम सम्पदानों को प्रसन्न चित्त हो ग्रहण करें।
अपने चतर मंत्री के बचन सुनकर अन्त्युतेन्द्र को अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव का सारा बतान्त ज्ञात हो पाया। वे धर्म का साक्षात् फल देखकर धर्म साधना में और भी तत्पर हुए। वे पूर्वभव के सूचक बचन कहने लगे
मैंने पर्व जन्म में निष्पाप और घोर तप किया था । शुभ ध्यान और अध्ययन योग भी किये थे । संसार पूज्य पंच परोडकी की सेवा की थी और रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए उत्तम भावनानी का चितवन किया था। मैंने विषयरूपी वन को जला दिया था। कामदेव जसे प्रबल शत्र को परास्त किया था। कपाय मोर परिषों पर विजय पायो थी। पूर्व में मैंने अपनी माती
उत्तम क्षमा प्रादि दश लाक्षणिक धर्म का पालन किया था। उसीका यह शुभ फल है कि आज हम इन्द्र-पद पर पामीन पर्थात ये समस्त ऋद्धियाँ धर्म के पालन से ही प्राप्त हुई है । वस्तुतः धर्म के समान दुसरा कोई मित्र नहीं है। धर्म ही संतार-सागर से पार उतारने वाला है। वक्षित अथों का साधक धर्म हा है। वह मानव जीवन को उन्नत बनाने वाला तथा पी शनयों का संहारक है। समस्त जीवों को सुख प्रदान करने वाला तथा स्वर्ग मोक्ष प्रदान करने वाला धर्म से अतिरिक्त
Trखने वाले भव्य पुरुषों को प्रत्येक अवस्था में निर्मल आचरण युक्त होकर धर्मदसरा नहीं है। ऐसा जान कर सूख की प्राकांक्षा रखने वाले भव्य पुरुषों को प्रत्येक अवस्था में मिलाकर साधना करनी चाहिए। इस प्रकार विचार करते हुए अच्युतन्द्र ने सोचा कि, यह तो ठीक है, पर वे चारित पालन नहीं किये जा सकते, तब मुझे क्या करना चाहिए। यही ता एक दशन शुद्धि हो पालन को जाम जिननाथ की भक्ति और उनकी मूर्ति को महान पूजा करना ही श्रेयस्कर है।
ऐसा निश्चय कर वे अच्यूतेन्द्र अपनी देवियों को साथ लेकर अकृत्रिम चैत्यालयों में गए। वहां नमस्कार कर अर्हत-बिम्बों को पूजा-पाराधना से रत हुए।
उन्हें पूजा के लिए प्रष्ट द्रव्य इच्छा मात्र से प्राप्त होते थे। उन्हीं द्रव्यों से भगवान को पजाम चैतन्तवक्ष के नीचे विराजमान जिन प्रतिमाओं की पूजा कर तथा मनुष्य लोक और मललोक की जिन प्रतिमा को महान धर्म का उपार्जन किया। व भूनीश्वरों से धर्म-तत्वों का व्याख्यान,सुनकर धर्म का उपार्जन करने लगे।