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तीथकर कल्याणक पंच, तत्पर तहाँ जाय मन संच । शेष केवलो मुक्ति महेश, दो कल्याणक करे सुरेदा ।। १२५॥ मेरु कुलाचल जिनगृह जहां, भाव सहित हरि बन्द तहां । द्वीप समुद्र असंख्य मझार, मन इच्छाधर कर विहार ॥१२६॥ पूजे श्री जिनदर के पाय, बदै निज पर शीरा लगाय । करै महोत्सव तहँ अधिकाय, बाँध विविध धर्म सुरराय । १२७।। इहि विध भुगतै परमानन्द, सुख सागर में सदा सुरन्द । सकल देव' मिलि सेवा करै, आज्ञा बिना न कहुं पग धरै ।।१२८॥
दोहा स्वर्ग लोक की संपदा, बरणन है अधिकार । कही किमपि लघ रूप में जाने जाननहार ||१२६।।
गीतिका यह भांति वृप परिपाक करके, सुरग राज सो पाइयो । तहं भई पूरण सब विधि, दिव्य भौग कराइयो ।। यह जान भबिजन भजहु धर्म हि, धरम एक सहाय है। धरम बहु भवहरण जियको, धरम शिव सखदाय है ।।१३०॥
इस प्रकार धर्म के फल से उन्हें अनेक सम्पदायें प्राप्त हई। उन्होंने तीन हाथ ऊंचा, पसीना धातुमल से रहित नेत्रों की टिमकार रहित दिव्य शरीर प्राप्त किया। उन्हें नरक की छठों पृथ्वी तक का अवधि ज्ञान था और बिक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई। ज्ञान के समान ही क्षेत्रों में गमन-यागमन में समर्थ उन इन्द्र को विभिन्न भूषणों से शोभायमान बाईस सागर की आयु प्राप्त हुई।
बाईस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर वे मानसिक दिव्य अमृत का पाहार करते थे। ग्यारह मास बीतने पर सुगन्धित श्वास लेते थे। वे सुरेश तीर्थकरों के पांचों कल्याणकों में तथा केलियों के दोनों कल्याणकों में जाया करते थे। देवों द्वारा पूज्य सुरेन्द्र सदा पूजा आदि महोत्सवों में जा जाकर धर्म की अभिवृद्धि किया करते थे। उन्हें सुख की सारी सामग्रियां उपलब्ध हुई।
इस तरह वे अच्युतेन्द्र सुख सागर में निमग्न हुए। धर्म के फल स्वरूप उन्हें जो सम्पदायें प्राप्त हुई उनका वर्णन करना असम्भव है। उन्होंने दिव्य भोगों का उपभोग किया। ऐसा समझ कर बुद्धिमान जन शम-दम और संयम से सदा धर्म का सेवन किया करते हैं।
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