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४. बौद्धाभिमत भूगोल परिचय ५वीं शताब्दी के वसुबन्धकृत अभिधर्मकोश के आधार पर ति. प० । प्र७। (H. L. Jain द्वारा कथित का भावार्थ) लोक के अधोभाग में १६००,००० योजन ऊँचा अपरिमित वायु मण्डल है। इसके ऊपर ११२०,००० योजन ऊंचा जल मण्डल है। इस जलमण्डल में ३२०,००० यो० भुमण्डल है। इस भूमण्डल के बीच में मेरू पर्वत है। आगे ५०,००० योजन विस्तृत सीता (समुद्र) है जो मेरू को चारों ओर से वेष्टित करके स्थित है। इसके आगे ४०,००० योजन विस्तृत युगन्धर पर्वत वलयाकार से स्थित है । इसके प्रागे भी इसी प्रकार एक एक सीता (समुद्र) के अन्तराल में से उत्तरोत्तर प्राधे-आधे विस्तार से युक्त क्रमश: ईषाघर, खदिरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक और निर्मिधर पर्वत हैं। अन्त में लोहमय चक्रवाल पर्वत है।
उद्धार पल्म समाप्त हुआ। इस प्रकार पल्य समाप्त हुआ। इन दशकोडाकोडी पल्यों का जितना प्रमाण हो उतना पृथक-पृथक एक सागरोपम का प्रमाण होता है। अर्थात् दशकोडाकोडी व्यवहार पल्यों का एक व्यवहारसागरोपम, दशकोडाकोडी उदार पल्लों का एक उद्धारसागरोपम और दशकोडाकोडी अदापल्यों का अद्धासागरोपम होता है।
सागरोपम समाप्त हुआ । अदापल्ल के जितने अर्धच्छेद हों, उतनी जगह गल्म को रखकर परस्पर में गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसे सूर्णगुल और प्रहरपला को अर्धच्छेद राशि के असंरुपात में भागप्रमाण धनागुल को रखकर उनके परस्पर गुस्सा करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उसे जगत्रेणी कहते हैं।
जगणी -- सू' अं. २
उपयुक्त सूर्यगुल का वर्ग करने पर प्रतरांगुल और जगन्नेणी का वर्ग करने पर जगप्रतर होता है। इसी प्रकार सूय॑गुल का धन करने पर धनांगल और जगश्रेणी को घन करने पर लोक का प्रमाण होता है। जगश्रेणी के सातवें भाग प्रमाण राजू प्रमाण कहा जाता है। प्र. 4. ४., ज.प्र.-घ., अ. ६. घ. लोस.x
___ इस प्रकार परिभाषा समाप्त हुई। सर्वज्ञ भगवान् से अवलोकित यह लोक आदि द्रव्यों और अन्त से रहित अर्थात् अनादिनन्त है, स्वभाव से ही उत्पन्न हुआ है, और जीव एवं अजीव द्रव्यों में व्याप्त है।
जितने आकश में धर्म अधर्म द्रव्य के निमित्त होने वाली जीव और पुदगलों की गति एवं स्थिति हो उसे लोकाकाश समझना चाहिये ।
छहः द्रव्यों के सहित यह लोकाकाश स्थान निश्चय ही स्वयंप्रधान हैं । इसकी सब दिशाओं में नियम से सब लोकाकाश स्थित है।
श्रेणी वृन्द के मान अर्थात जगभेणी के धनप्रमाण से निष्पन्न हुआ यह लोक अधोलोक, मध्यलोक और अध्यलोक के भेद से तीन प्रकार का है।
इनमें से अधोलोक का आकार स्वभाव से वेवासन के सद्श और मध्यलोक का आकार खड़े किये हुये आधे मृदंग के उर्वभाग के समान है।
उर्ध्व लोक का आकार खड़े किये हुये मृदंग के सदश है । अब इन तीनों लोकों के आकार को कहते हैं।
उस सम्पूर्ण लोक के बीच में से जिस प्रकार मुख एक राजु और भूमि सात राजु हो इस प्रकार मध्य में छेदने पर अधोलोक का आकार होता है।
दोनों अर फैले हुए क्षेत्र को उठाकर अलग रख दे, फिर विपरीत क्रम से मिलाने पर विस्तार और उत्मेष सात राजु होता है।
जिस प्रकार मध्य में पांच राजु नीचे और ऊपर क्रम से एक राजु और ऊँचाई सात राजु हो, इस प्रकार खण्डित करने पर नीचे और ऊपर मिले हुये क्षेत्र का आकार अन्तिम लोक अर्थात उज़लोक का आकार होता है। इसको पूर्वोक्त क्षेत्र अर्थात् अधोलोक के ऊपर रखने पर
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