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धर्म अधर्म और प्राकाश ये तीन द्रव्य भिन्न-भिन्न रहते हैं । अखण्ड और निष्क्रिया हलन चलन रहित रहते हैं। सम्पूर्ण लोकाकाश में तिल और तेल के समान व्याप्त रहते हैं। ये नित्य और अवस्थित हैं अनादि काल से इसी तरह रहते हैं। इसका कोई कर्ता धर्ता नहीं है। ये अनादि हैं, लोक में जीव अनन्तानन्त हैं, पुद्गल जीव की अपेक्षा से जीव अनन्त गुणे ज्यादा रहते हैं। काल अनुरूप से असंख्यात है जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल से अमुर्तिक हैं। पुद्गल एक ही मूर्तीक है अर्थात रूपी पदार्थ है, धर्म, अधर्म, काल और जीव ये असंख्यात प्रदेशी हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी है। लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है। और पुद्गल प्रसंख्यात और अनन्त प्रदेशी है ।
पुदगल पुदगल का अर्थ पुरण और गलन होना अर्थात् लंघन होना और अलग होना इसको पुदगल कहते हैं। क्रिया स्वभाव युक्त वस्तु को पुद्गल कहते हैं। पु का अर्थ जीव और गिल का अर्थ शरीर। पाहार विषय मादि ग्रहण करने वाले क्रिया के उपयोग होने को पुद्गल कहते हैं।
पुद्गल पर्याय के दो भेद हैं-भाषात्मक और प्रभाषात्मक ऐसे शब्द दो तरह का है उनमें भाषात्मक शब्द अक्षरात्मक तथा मनक्षरात्मक रूप से दो तरह का है। उनमें भी अक्षरात्मक भाषा, संस्कृत प्राकृत और उनके अपभ्रश रूप पैशाची ग्रादि भाषामों के भेद से प्राय व म्लेक्ष मनुष्यों के व्यवहार के कारण अनेक प्रकार की है। अनक्षरात्मक भाषा द्वीन्द्रिय आदि तिर्यच जीवों में तथा सर्वज्ञ की दिध्य ध्वनि में है। प्रभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैश्रसिक के भेद से दो तरह का है। उनमें "वीणा" प्रादि के शब्द को तत, ढोल आदि के शब्द को वितत, मंजीरे तथा ताल आदि के शब्द को धन पौर वंसी आदि के शब्द को सुषिर कहते हैं। इस में कहे हुए क्रम से प्रायोगिक (प्रयोग से पैदा होने वाला) शब्द चार तरह का है, विधसा अर्थात् स्वभाव से होने वाला वैश्रसिक शब्द बादल आदि से होता है बह अनेक तरह का है। विशेषशब्द से रहित निज परमात्मा की भावना से छूटे हुए तथा शब्द प्रादि मनोज्ञ अमनोज्ञ पंच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त जीव ने जो सुस्वर तथा दुःस्वर नाम कर्म का बंध किया उस कर्म के उदय के अनुसार यद्यपि जीवन में शब्द दिखता है तो भी वह शब्द के संयोग से उत्पन्न होने के निमित्त से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव का शब्द कहा जाता है, किन्तु निश्चय नय से तो वह शब्द पुद्गलमयी ही है। प्रब बंध को कहते हैं-मिट्टी यादि के पिण्ड रूप जो बहुत प्रकार का बंध है वह तो केवल पुद्गल बंध हैं। जो कर्म ? नो कर्म रूप बंध है वह जीव और पुद्गल के संयोग से होने बाला बंध है। विशेष यह है-कर्म बंध से भिन्न जो निज शुद्ध आत्मा की भावना से रहित जीव के अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से द्रव्य बंध है और उसी तरह अशुद्ध निश्चय नय से जो वह रागादिक रूप भावबन्ध कहा जाता है, यह भी शुद्ध निश्चय नय से पुदगल का ही बन्ध है । वेल आदि की अपेक्षा बेर आदि फलों में सूक्ष्मता है और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता है (परमाणु की सूक्ष्मता किसी की अपेक्षा से नहीं है)। बेर आदि की अपेक्षा बेल आदि में स्थूलता (बड़ापन) है तीन लोक में व्याप्त महास्कन्ध में सबसे अधिक स्थलता है। समचतुरस्त्र, न्यग्रोथ, सातिक, कब्जक, वामन और हंडक ये ६ प्रकार के संस्थान व्यवहार नय से जीव के होते हैं। किन्तु संस्थान शून्य चेतन चमत्कार परिणाम से भिन्न होने के कारण निश्चय नय की अपेक्षा संस्थान पुद्गल का ही होता है जो जीव से भिन्न गोल, त्रिकोन, चौकोर प्रादि प्रगट अप्रगट अनेक प्रकार के संस्थान है, वे भी पुद्गल के ही हैं। गेहं प्रादि के चूर्न रूप से तथा घी, खाण्ड आदि रूप से अनेक प्रकार का "भेद" (खण्ड) जानना चाहिए। दृष्टि को रोकने वाला अन्धकार है उसको "तम" कहते हैं। पेड़ आदि के आश्रय से होने वाली तथा मनुष्य प्रादि की परछाई रूप जो है उसे "छाया" जानना चाहिए। चन्द्रमा के विमान में तथा जुगनू प्रादि तिर्यच जीवों में "उद्योग" होता है। सूर्य के विमान में तथा अन्यत्र भी सूर्यकान्त विशेष मणि प्रादि पृथ्वीकाय में "पातप" जानना चाहिए। सारांश यह है कि जिस प्रकार शुद्ध निश्चय नय से जीव के निज प्रात्मा की उपलब्धि रूप सिद्ध स्वरूप में स्वभाव व्यंजन पर्याय विद्यमान है फिर भी अनादि कर्मबंध के कारण पुद्गल के स्निग्ध तथा रूक्ष गुण के स्थानभूत रागद्वेष परिणाम होने पर स्वाभाविक परमानन्दरूप एक स्वस्थ्य भाव से भ्रष्ट हुए जीव के मनुष्य, नारक मादि