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यक्ति संगत है।११. मध्यलोक की उपरोक्त सर्व पथिचियों को पथक-पथक रूप से नारंगीवत गोल मान लेने पर भी मध्यलोक का समुदित चपटा थाली के आकार वाला रूप विरोध को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि उक्त संचार क्षेत्रों को समुदित रूप का वही आकार है। (१२) इस पृथ्वो को ही जम्बूद्वीप मानकर इसमें भारत आदि क्षेत्रों का हिमवान पर्वतों का अवस्थान भी यथायोग्य रूप में फिर बैठाया जा सकता हैं। भले ही शब्दशः व्याख्या का मेल बैठ जाता है। परन्तु ऐसा करने के लिये हमें भौगोलिक इतिहास पर दृष्टि डालनी होगी कि किस-किस समय में इनके नाम क्या-क्या रहे हैं, किस प्रकार से उस मान्यता ने बदलकर यह रूप धारण कर लिये । प्रकृति के परिवर्तन की अटूट धारा में कब-कब व किस-किस प्रकार पहले-पहले पर्वत आदि भूगर्भ में समा गये और नये उत्पन्न हो गये इत्यादि । इस विषय का कुछ स्पष्टीकरण चातुर्दीपिक भूगोल नाम के अगले शीर्षक के अन्तर्गत दिया गया है।
चातुर्दीपिक भूगोल परिचय (ज. प. । प्र.१.८ । एच. एक जन का भावाय) १. फाशी नागरी प्राचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित सम्पूर्णानन्द अन्य में दिये गये, श्री रामकृष्ण दास जी के एक लेख के अनुसार, वैदिक धर्म मान्य सप्तद्वीपक भूगोल (दे० शीर्षक न०३) की अपेक्षा चातुपिक भूगोल अधिक प्राचीन है। इसका अस्तित्व अब भी वायु पुराण में कुछ-कुछ मिलता है। चीनी यात्री मेगस्थनीज के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था, क्योंकि वह लिखता है कि भारत के सीमान्त पर तीन और देश माने जाते हैं-सीदिया, बैक्ट्रिया तथा एरियाना। सोदिया से उसके भद्राश्व व उत्तरकुरु तथा बैंक्ट्रिया व एरियाना से केतुमालद्वीप अभिप्रेत हैं। प्रशोक के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था, क्योंकि उसके शिला लेखों में जम्बू द्वीप भारतवर्ष की संज्ञा है। महाभाष्य में आकर सर्व प्रथम सप्तद्वीपिक भूगोल की चर्चा है। अतएव वह अशोक तथा महाभाष्य काल के बीच की कल्पना जान पड़ती है। २. सप्तद्वीपिक भूगोल की भांति यह चातुर्ती पिक भूगोल कल्पना मात्र नहीं है, बल्कि इसका प्राधार वास्तविक है। उसका सामंजस्य आधुनिक भूगोल से हो जाता है। ३. चातुदींपिक भूगोल में जम्बूद्वीप पृथ्वी के चार महाद्वीपों में से एक है और भारतवर्ष जम्बूद्वीप का ही दूसरा नाम है। वहीं सप्तद्वीपक भूगोल में जाकर इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी बराबरी वाले अन्य तीन द्वीप (भद्राश्व, केतुमाल व उत्तरकुरु) उसके वर्ष बनकर रह जाते हैं। और भारतवर्ष नाम वाला एक अन्य वर्ष (क्षेत्र) भी उसी के भीतर कलिगत कर लिया जाता है। ४. चातुर्तीपी भूगोल का भारत (जम्बूद्वीप) जो मे तक पहंचता है. सप्तद्वीपिक भूगोल में जम्बूद्वीप के तीन वर्षों या क्षेत्रों में विभक्त हो गया है-भारत वर्ष, किंपुरुष व हरिबर्ष । भारत का वर्ष पर्वत हिमालय है। किंपुरुष हिमालय के परभाग में मंगोलों की बस्ती है, जहाँ से सरस्वती नदी का उद्गम होता है तथा जिसका नाम आज भी कन्नौर में प्रवशिष्ट है। यह वर्ष पहले तिब्बत तक पहुंचता था, क्योंकि वहां तक मंगोलों की बस्ती पायी जाती है । तथा इसका वर्ष पर्वत हेमकूट है, जो कतिपय स्थानों में हिमालयान्तर्गत ही वणित हुया है। (जैन मान्यता में किंपुरुष के स्थान पर हैमवत और हिमकूट के स्थान पर महा हिमधान का उल्लेख है। हरिवर्ष से हिरात का तात्पर्य है जिसका पर्वत निषध है, जो मेरु तक पहुचता है । इसी हरिवर्ष का नाम अवेस्ता में हरिवर जी मिलता है। ५. इस प्रकार रम्यक, हिरण्यमय
और उत्तर कुरु नामक वर्षों में विभक्त होकर चातुर्दीपिक भूगोल वाले उत्तरकुरु महाद्वीप के तीन वर्ष बन गये हैं। ६. किन्तु पूर्व और पश्चिम के भद्राश्व व केतुमाल द्वीप यथापूर्व दो के दो ही रह गये। अन्तर केवल इतना ही है कि वे यहां दो महाद्वीप
(१) भूजा और प्रतिभूजा को मिलाकर आधा करने पर जो व्यास हो, उसे ऊंचाई और मोटाई से गुणा करना चाहिए। ऐसा करने से त्रिकोण क्षेत्र का घनफल आता है।
(२) एक लम्बे बाह को व्यास के आधे से गुणा करके पुनः मोटाई से गुणा करने पर एक लम्बे बाहयुक्त क्षेत्र के धनफल का प्रमाण आता है ।।१८१||
लोक में च्यालीस का भाग देने से, चौदह का भाग देने से, और लोक को पांच से गुणा करके उसमें व्यालीस का भाग देने से क्रमशः उन तीनों अभ्यान्तर क्षेत्रो का धनफल निकलता है।
॥१८॥ ३४२ :-४२= प्र. अ. क्षेत्रफल का पन प, ३४३:१४=२४ दि, अक्षेत्र का धनफल ३४३४५: ४२=४० तृ प्रक्षेत्र का घनफल।
इस समस्त घनफल को मिलाकर और उसे दुगुना करके इसमें ममम क्षेत्र के घनफल को जोड़ देने पर चार से गुणित और सात से माणित लोक के बराबर संपूर्ण अधोलोक के घनफल का प्रमाण निकल आता है । ॥१३॥ ... +२ +४. ७३% ७३४२=१४७, १४७+ ४६=१९६ पूर्ण अ. लो का घनफल बराबर ३४३४४७ रा.