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और दया का आपस में कोई मेल नहीं हो सकता। किन्तु पाश्चात्य देशों में आजकल निरामिष भोजन और प्राणियों के प्रति दया का बड़ा भारी आन्दोलन चल रहा है। जिस प्रकार प्राचीन भारतीय क्षत्रिय लोग ब्राह्मणों के सहयोग से हिंसामई यज्ञ या ज्ञ करते-करते हिंसा से इतने ऊब गए थे कि उन्होंने भगवान् महावीर जेसे अहिंसा प्रचारकों को उत्पन्न किया उसा प्रकार अाज कल' पाश्चत्य देशवासी भी व्यर्थ की हिंसा और निर्दयता से ऊब गये हैं। यहां प्रत्येक देश में निरामिष भोजन का प्रचार करने वालो सभाएं हैं। आपको यूरोप तथा अमेरिका के प्रत्येक देश में शाकाहारी होटल तक मिलेंगे। मब वह जमाना टल गया जब पाश्चात्य देशों में जाने पर बिना मांस खाए काम नहीं चलता था।
निरामिष भोजन के प्रचार के अतिरिक्त वहां प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यबहार न करने का प्रान्दोलन भी प्रत्येक देश में किया जा रहा है। इस समय यूरोप के प्रत्येक देश तथा अमेरिका में जीव दया प्रचारिणी सभाएं (Humanitarian Leagues) काम कर रही हैं।
जीव दया प्रचारिणी सभाएं प्राणियों पर निर्दयता न करने का प्रचार केवल ट्रेक्ट्रों, व्याख्यानों और मैजिक लालटेनों द्वारा ही नहीं करती, बल्कि वे अपने-अपने देशों में पशु निर्दयता निवारक कानून (Prevention of cruety to Animal Act) भी बनवाती हैं। इसके अतिरिक्त वे जिस देश में प्राणियों के प्रति सामूहिक अन्याय किये जाने की बात सुनतो हैं उसका खला विरोध भी करती हैं। पिछले दिनों अमेरिका की जीव दया सभा ने भारत सरकार के बिना किसो प्रतिबन्ध के अमेरिका में बन्दर भेजने के कार्य का कठोर शब्दों में विरोध किया था। उन्होंने १ सितम्बर, १६३७ से ३१ मार्च, १९३८ तक भारतोय राष्ट्रीय कांग्रेस के पास भी अनेक पत्र भेज कर उससे अनुरोध किया था कि वह भारत सरकार को इस प्रवृत्ति को बन्द करने में सहायता दं। अमरीका में अनेक वैज्ञानिक प्रयोगशालायों में जीवित पशुओं को वीर फाड़ करक अथवा उनका श्रापरेशन कर के वैज्ञानिक प्रयोग किये जाते हैं। इन बन्दरों को भारतवर्ष से उन्हीं प्रयोगशालाओं के लिए भेजा जाता था, वहाँ उनको अनेक
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चिगलेपट जिले के मादमबक्कम नामक स्थान में जीवित भेड़-बकरी के पेट को थोड़ा काटकर उसकी प्रांतें खींच ली जाती हैं और उन्हें सेल्लीयम्मन देवी के सामने गले में हार की तरह पहिना जाता है।
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प्रकार के काटने, फाड़ने, चीरने, छेदने आदि के कष्ट दिये जाते थे। इस कार्य का चिकित्सकों, पादरियों, जीवित प्राणियों के प्रापरेशन का विरोध करने वाली सभाओं तथा अन्य भी अनेक व्यक्तियों ने घोर विरोध किया।
एक अमेरिका निवासी का कहना है कि वहां प्रतिवर्ष साठ लाख प्राणियों का प्रयोगशालाओं में बलिदान किया जाता है। उनमें से केवल पांच प्रतिशत को ही बेहोश करके उनकी चीर-फाड़ की जाती है। शेष सब बिना बेहोश किये ही, चोरेफाड़े जाते हैं। इन प्रयोगशालानों पर किसी प्रकार का निरीक्षण नहीं है। इनमें निर्दयता पूर्ण सभी कार्य प्रयोग करने वालों की