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वजह है और उसे परम धर्म ही नहीं किन्तु परम ब्रह्म भी कहा गया है जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्य से प्रकट है"अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं ।
स्वयम्भूस्तोत्र और इसलिए जो परमब्रह्म की प्राराधना करना चाहता है उसे अहिंसा की उपासना करनी चाहिए -रागद्वेष की निवति, दया, परोपकार अथवा लोक सेवा के कर्मों में लगना चाहिए । मनुष्यों में जबतक हिसकवृत्ति बनी रहती है तबतक पारमा गणों का घात होने के साथ-साथ 'पापाः सर्वत्र बंकिता को नोति के अनुसार उसमें भय का या प्रतिहिंसा की आशंका सदभाव' बना रहता है। जहां भय का सद्भाव वहां वारत्व नहीं-सम्यक्त्व नहीं मोर जहा बीरत्व नहीं और वहां-सम्यक्त्व नहीं वहां पारमोद्धार का नाम नहीं अथवा या कहिये कि भय में संकोच होता है और संकोच विकास को रोकने वाला है। इस लिए ग्रामोशार अथवा आत्म विकास के लिए अहिंसा को बहुत बड़ी जरूरत है और वह वीरता का चिन्ह है-कायरता का 'नहीं । कायरता का आधार प्रायः भय होता है, इसलिए कायर मनुष्य अहिसा धर्म का पात्र नहीं-उसमें अहिंसा ठहर नहीं सकती। वह वीरों के ही योग्य है और इसीलिए महावीर के धर्म में उसको प्रधान स्थान प्राप्त है। जो लोग अहिंसा पर कायरता का कलंक लगाते हैं उन्होंने वास्तव में अहिंसा के रहस्य को समझा हो नहीं। वे अपनी निर्बलता और प्रात्म विस्मति के कारण कषायों से अभिभूत हए कायरता को वीरता और प्रात्मा के क्रोधादिक सप पतन को ही उसका उत्थान समझ
ब से लोगों की स्थिति, निःसन्देह बड़ी ही करुणाजनक है।
सर्वोदय तीर्थ
स्वामी समन्तभद्र ने भगवान महावीर और उनके शासन के सम्बन्ध में और भी कितने ही बहुमूल्य वाक्य कहे हैं जिनमें से एक सुन्दर वाक्य मैं यहां पर और उदधत कर देना चाहता हूं और वह इस प्रकार है:
सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्य चरियोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकर निरन्त, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।।६।।
युक्त्यनुशासन इससे भगवान महावीर के शासन अथवा उनके परमागमलक्षण रूप वाक्य का स्वरूप बतलाते हए जो उसे ही सम्पूर्ण मापदामों का अन्त करने वाला और सबों के अभ्युदय का कारण तथा पुर्ण अभ्युदय का विकास का हेतु ऐसा सर्वोदय तीर्थ बतलाया है वह बिल्कुल ठीक है। महाबोर भगवान का शासन अनेकान्त के प्रभाव से सकल दुर्नयों तथा मिथ्या दर्शनों का अन्त (निरसन) करने वाला है और ये दुर्नय तथा मिथ्यादर्शन ही ससार में अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःख रूप प्रापदामों के कारण होते हैं। इसलिए जो लोग भगवान महावीर के शासन का-उनके धर्म का-याश्रय लेते हैं--उसे पूर्णतया अपनाते हैंउनके मिध्यादर्शनादिक दुर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं। और वे इस धर्म के प्रसाद से अपना पूर्ण अभ्युदय सिद्ध कर सकते हैं। महावीर की ओर से इस धर्म का द्वार सब के लिए खुला हुया है। जैसा कि जैन ग्रन्थों के निम्न वाक्यो से ध्वनित है :
(१) दीक्षायोग्यास्त्रयों वर्णाश्चतुर्थश्च विधाचितः ।
मनोवाक्काय धर्माय मताः सवपि जन्वयः ।। उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनां । नकस्मिन्पुरुष तिष्ठदेकस्तम्भ इचालयः ।।
यशस्तिलके, सोमदेवः (२) प्राचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्कार शरीरशुद्धिश्च करोति शूद्रानपि
देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान् ।-नीतिबाक्यामृते, सोमदेवः ? (३) शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शुद्ध्याऽस्तु तादृशः। जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ हात्मास्ति धर्मभाक् ।।२-२२॥
- सागारधर्मामृते, पाशाघर:
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