________________
वोहा श्राज्ञा मग उपदेश, सूत्र बीज सम्यक्त्व भव । संक्षेप हि बहु देश, अर्थगाढ़ परगाढ़ दश ।।१८६॥ पुरब वरनी सोइ, ये समकित दश भूमिका । देख लेउ भवि लोइ, सब नप प्रतिगणधर भनी ।।१८७।।
चौपाई
सो अब तुम नृप रुचि उपजाइ, सकल तत्व सुन श्रद्धा लाइ। परमगाढ़ निश्चे मन दयौ, क्षायिक समकित दृढ़कर भयौ ।।१८।। अरु तुम षोडश भावन नाइ, केवल निकट प्रीति अधिकाइ । इमि बांध्यौ तीर्थंकर गोत, जग अचरण करता यह होत ।।१८६॥ थिति छुटी सप्तम भू तनी, गतिको बंध जाइ नहि हनी । प्रथम नरक पहली पायरी, कर्मपाक फल भुजन करी ।।१६।। वरप सहस चौरासी श्राव, तहत निकस पुण्य परभाव । इत ही फिर उत्सपिणी काल, क्षेमंकर चौदह कुल बाल ॥१६॥ पदमनाभ तीर्थकर देव, प्रथम हि तुम ही सुन भेव । धर्मतीर्थ वर्तक गुन गेह, यामें मत मानौ सन्देह ।।१६।। इहि विधि सन श्रेणिक नृप तब, अति प्रानन्द बढ्यो उर तवै। मानों सफल जनम अब एह, जानी तीर्थकर पद नेह ।।१३।। बारह सभा सुनी यह कथा, भविजन मन सब हषे जथा। के इक तव लोन्यौ वैराग, के इक समकित धारौ मांग || १६४॥ के इक श्रावक व्रत आदरौ, मोह तिमिर उरते परिहर्यो। पुन नप जिन चरणाम्बुज नाम, अरु गणधरके प्रणमें पाय ॥१६५|| प्रभमख धर्मसुधा इमि पियो, फिर निजपुर को पावन कियौ । अव जे समोशरन थित जीव, तिनकी संख्या सुनहु अतीव ॥१६६।।
अर्थ सम्यकत्व है। अङ्ग एवं अङ्गवाह्य श्रुतका चिन्तन करने से जो विशिष्ट रुचि होती है वह अवगाढ़ दर्शन है और यह दर्शन बाहर गण स्थान में प्राप्त योगी पुरुषों को होता है। तथा केवल ज्ञानके द्वारा ज्ञान हुए सम्पूर्ण पदार्थोंका जो श्रद्धान है बही सर्वप्ठ परमावगाढ़ सम्यक्त्व है। जिनेन्द्र देवके द्वारा कहा हुआ ये ही दस सम्यक्त्व यथार्थतः सम्यकत्व है। इन दसोंके भी उनके भेदोपभेद है । हे राजा, तू दर्शन विशुद्धि इत्यादि पृथक् पृथक् या सम्पूर्ण एकत्रित सोलह कारणोंसे जगद्गुरुके पास जाकर जगतको आश्चर्यचकित कर देने वाला तीर्थंकर के नाम एवं धर्म का बंध करेगा, परन्तु पूर्व कर्मके प्रभाव एवं फलसे परलोकमें रत्नप्रभा नामकी पहली नरक-भूमि में जायगा-यह निश्चय है। वहां पर कर्मों का फल भोगकर आयुके नाश हो जाने पर वहांसे निकलेगा अागामी उत्सपिणी कालके चतुर्थ कालारम्भमें तू महापम नामका तीर्थकर होगा। यह निश्चय है कि तू ही सज्जनोंका कल्याणकारक एवं धर्मतीर्थ प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर होगा। हे भव्य, तू निकटतम भव्य है अब तुझे संसार से डरनेका कोई विशेष महत्वपूर्ण कारण नहीं है । जितने संसारमें पुनः पुनः भटकने वाले जीब हैं वे सभी अनेकों बार घोर एवं घोरतम नरकों में आये गये है।
अपने को रत्नप्रभा नामके नरकमें जाने की बातको सुनकर महाराजश्रेणिकके हृदय में परिताप एवं ग्लानि हुई। बादमें नमस्कार करके उन्होंने फिर गणधर देवसे प्रश्न किया :-हे प्रभो, मेरे नगरको सब लोग उत्तम पुण्य स्थान कहा करते हैं तो बतलाइये कि चल मात्र में ही नरक में जाऊंगा या यहां के रहने वाले और लोग भी नरक गामो होंगे? इस प्रश्नके बाद श्री गौतम गणधर स्वामीने राजाके ऊपर अनुग्रह करके कहा कि, राजन्, तू अपने शाकको दूर करने वाले सत्य वचन को सुन
इसी (तुम्हारी नगरी राजगृहीमें) स्थित एवं नीचकर्म के द्वारा मनुष्य आयु बांधकर नीच कुलमें उत्पन्न काल शौकरिक नामका एक भंगी रहता था। उसको इस समय अपने पूर्व सात भवोंका स्मरण हो पाया है। इसी कारण वह अब इस तरहका विचार करने लग गया है कि यदि जीवका सम्बन्ध पाप पुण्य से होता तो बिना पुण्यके हमें मनुष्य-जन्म कैसे प्राप्त होता। इस लिये पाप-पुण्यको कोई स्थानका महत्व नहीं है । जो कुछ है इस संसारमें केवल विषय सुख ही है और उसीसे कल्याण हो सकता है। ऐसा सोचकर वह पापात्मा निःशंक हो गया है और हिंसा इत्यादि को करते हुए मासादि पाहारमें अाशक्त रहता है। इसके फल स्वरूप बहुत आरम्भ एवं परिग्रहके कारण नरकायु संचित हो गई है और अपनी प्रायुके अन्त में वह पापोदयसे