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दोहा उपशम भाव नहीं भये, भ्रम्यौ काल अनन्त । सो अनादि मिथ्यातमें, ममता मगन रहंत ॥२४७।।
सासादन गुणस्थान
चौपाई चड़े छठे लौं प्रानी जाय, उपशम बल फिर उदय कराय । एक समय छह प्रावलि रहै, तहं ते गिर मिश्यात हि गहै ॥२४८।।
मिश्र गुणस्थान दरशन मोह प्रकृति त्रय सार, अनंतानुबंत्रीकी चार । जब ए उपशम कर समभाव, तबहि मिगुरण थान लखाव ॥२४॥
अब्रत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान समकित तनों जहां उद्योत, सात प्रकृति को नाश जु होत । व्रत सों रहित भाव उर शुद्ध, सो अव्रत गुणथानक बुद्ध ॥२५॥
देशन्नत गुणस्थान अपन विधि व्रत धावक तन, अरु पखाद्य त्यागी तिहि भने। है गहस्थ पर मुनिहि समान, देशनती कहिये गुणथान |॥२५॥
प्रमत्तसंयत गुणस्थान
__दोहा पंच प्रमाद दशा धर, गुण प्राइस धाम ।थावरकल्प जिनकल्प जुत, पुलाकादि सुन नाम ।।२५२।। धर्मराग विकथा उच्चरे, निद्रा विषय कषायन धरै । ए कहिये पांचों परमाद, इन जुत मुनिवर सहित विषाद ।।२५३|| पंच महाव्रत पालनहार, पंच समिति गुण साधन धार । तपकर पांचों इन्द्रिय जीत, जाने षट यावश्यक रीत ॥२५॥ प्रासूक भूमि करै अस्थान, लंचे केश न करै सनान । वसन रहित दांतोन न कर, ठांडे ग्रास अहार जु धरं ।।२५॥ एक बेर लधु भोजन करै, ए अठवीस मूलगुण धरै: मुनिके संग शिष्य जो रहैं, थवरकल्प याही सौं कहैं ॥२५६॥ एकाकी मुनि परम प्रधान, तपोधनो जिनकल्पी जान । पुलाक बवृश कुशील निरग्रंथ, अस्नातक जुत सुन पंथ ।।२५७|| जथा धानके फूला जान, सो पुलाक कहिये परवान । धान तुषारिक सब तामांहि बकुश परिग्रह छूटौ नाँहि ।।२५८॥ ग्रही शिष्य राख निज पास, वगर समान कुशील प्रकाश । जो निरग्रन्थ तपस्वी घोर, ज्यों चावर छर निर्मल जोर ।।२५६।। जहं तुष मात्र परिग्रह नहीं, एकाकी नव बिहरत महीं । सो प्रस्नातक मुनिवर संत, राधे तंदुल सम जु मर्तत ॥२६॥ सह परीषह समतावान, है प्रमत्त नामा गुणथान । जतिकी क्रिया सकल या माहि, मुनिपद सहित प्रमादन खिपाहि ॥२६१।।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान
जहां अहार निहार न होय, पंच प्रमाद न दीसै कोय। धर्म ध्यान थिरता अधिकाय, अप्रमत्त मुणथान कहाय ॥२६२।।
रहित, शरीरादि मतियों से हीन परम ज्ञानमय, अतिशयमहान् तीनों लोक में श्रेष्ठतम, आठ गुणों से अलंकत तोनों लोक के बड़े-बड़े स्वामियों द्वारा सेवित, मोक्षाभिलाषी सिद्धोंके द्वारा वन्दनीय तथा संसारके मुकुटमणि के समान विराजमान हैं वे ही निष्फल परमात्मा कहे गये हैं। यही सर्वश्रेष्ठी सिद्ध परमेष्ठी अति निश्चल मन से मुमुक्षयों के द्वारा सदैव ध्यान करने के योग्य हैं। ऐसा ध्यान करनेसे क्रान्ति हीन योगी की तरह परमात्मा रूप मोक्षको सब लोग सहज ही में पालते हैं। प्रथम गुणस्थानमें उत्कृष्ट बहिरात्मा, दूसरे गुणस्थान में मध्यम और तीसरे में जघन्य शठके रूप में कहा गया है। इसी तरह जघन्य अन्तरात्मा चोथे गुणस्थानमें और उत्कृष्ट अन्तरामा बारहवें गुणस्थान में कहा गया है। इससे अनन्त केवली ज्ञानकी प्राप्ती होती है। दोनोंके
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