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जब प्रथमयोग समाप्त हुआ तब वे आहार के लिए अयोध्यापुरी में आये । वहाँ ब्रह्मा नामक श्रेष्ठी ने उन्हें उत्तम आहार दिया जिससे उसके घर पर देवों ने पंचाश्चयं प्रकट किये तथा उप करके केवल ज्ञान प्राप्त किया। आपके सितयनादि ५२ गणधर और प्रकृआदि आर्यिका श्री महायक्ष रोहिणी दक्षिणो भी आपने सम्मेद शिखर जी से मोक्ष प्राप्त किया। भगवान अजितनाथ जी के समय में सगरनामक दूसरे चक्रवर्ती हुये पौर जितशत्रु नामक दूसरे रुद्र भी आपके समय में ही हुये थे ।
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भगवान शंभवनाथ
त्वं
शंभव: संभवत रोग: संतप्यमानस्य श्रासी रिहा कास्मिक एवं वैद्यौ, वैद्यौ यथा नाथ!
जनस्य लोके । रुजा प्रशान्त्यै ।
- स्वामी समन्तभद्र ।
हे नाथ ! जिस तरह रोगों की शान्ति के लिए कोई वैद्य होता है उसी तरह बाप संभवनाथ भी उत्पन्न हुए तृष्णा रोग से दुःखी होने वाले मनुष्य की रोग शान्ति के लिए अकस्मात प्राप्त हुए वैद्य हैं।
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पूर्व भव परिचय
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सप्ता नदी के उत्तर तट पर एक कच्छ नाम का देश हैं उसमें एक क्षेभपुर नाम का नगर है | क्षेभपुर का जैसा नाम था उसमें वैसे ही गुण थे अर्थात् उसमें हमेशा क्षेम मंगलों का ही निवास रहता था। वहां के राजा का नाम विमलवाहन था । विगलवाहन ने अपने बाहुबल से समस्त विरोधी राजाओं को वश में कर लिया था । शरद ऋतु के इन्दु की तरह उसकी निर्मल कीर्ति सब घोर फैली हुई थी। वह जो भी कार्य करता था मंत्रियों को सलाह से ही करता था इसलिए उसके समस्त कार्य सुदृढ़ हुआ करते थे ।
एक दिन राजा विमलवाहन किसी कारण संसार से विरक्त हो गये जिससे उसे पांचों इन्द्रियों के विषय भी काले भुजंगों की तरह दुखदायी मालूम होने लगे । वह सोचने लगा कि यमराज किसी भी छोटे बड़े का लिहाज नहीं करता अच्छे से अच्छे और दीन से दीन मनुष्य इसकी कराल दष्ट्रातल के नीचे ले जाते हैं जब ऐसा है तब क्या मुझे छोड़ देगा ? इसलिए जब तक मृत्यु निकट नहीं आती तब तक तपस्या यादि से यात्महित की ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए। ऐसा विचार कर वह
आनन्दमरन हो गये और अपनी ही इच्छा से मनुष्य शरीर धारण करने वाले पुराण पुरुष श्रीहरि का सप्रेम लालन करते हुए, उन्हीं के लीलाविलारा से मुग्ध होकर 'वत्स ! तात !' ऐसा गद्गदवाणी से कहते हुए बड़ा सुख मानने लगे ।
विविनुरागमापरकृति जनपद राजानाभिरात्मजं समयसेतुरक्षायामभिषिच्य ब्राह्मणेपूपनिधाय सह मेरुवेण्या विशालायां प्रसन्ननिपुणेन तपसा समधिगेत नरनारायणाय भगवन्तं वसुदेवमुपासीनः कालेन नन्महिमानमवाय
उन्होंने देखा नागरिक और राष्ट्र की जनता ऋषभदेव से बहुत प्रेम करती है, तो उन्होंने उन्हें मंदा की के लिये राज्यानिति करके ब्राह्मणों की देखरेख में छोड़ दिया। आप अपनी पत्नी देवी के सहित दरिम को चले गये। वहाँ अहिंसावृत्ति से, जिससे किसी को उद्वेग न हो ऐसी कौशलपूर्मा तपस्या और समाधियों के द्वारा भगवान वामुदेव के नर-नारायणरूप की आराधना करते हुए समय आने पर उन्हीं के स्वहग में लीन हो गये ।
अह भगवानृदेवः स्वकर्मक्षेत्रमनुमन्यमानः प्रदर्शितगुरुकुलवतो वरं रुभिरनुज्ञातो गृहमेधिनां धमनिनुशिक्षणाशी जयन्ताकर्ममा जामानानाजनपदेवास महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आलीयेनेदं वर्ष भारतमिति वदन्ति।
भगवान ऋषभदेव ने अपने देश अजनाभखण्ड को कर्मभूमि मानकर लोक संग्रह के लिये कुछ काल गुरुकुल में वारा किया। गुरुदेव को मनोचित दक्षिणा देकर हर में प्रवेश करने के लिये उनकी बाशा की फिर लोगों को हर की शिक्षा देने के लिये देवराज इन्द्र की दी हुई उनकी कन्या जबी से विवाह किया तथा श्रीवस्वार्त्त दोन प्रकार के शास्त्रोपदिष्ट कर्मों का आचरण करते हुए उसके गर्भ से अपने ही
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