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विषयों से अत्यात विरक्त होकर प्रियमित्र नामक पुत्र के लिए साम्राज्यपद की विभूति प्रदान की और बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर संयम धारण कर लिया।
वह मद्ध सम्यग्दर्शन तथा निर्दोष चरित्र का धारक था, शास्त्र ज्ञानरूपी सम्पत्ति से सहित था, उसने द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों का घात कर दिया था। अब वे नौ केवल लब्धियों के स्वामी हो गये तथा धर्मनाथ तीर्थकर के समान धर्म का उपदेश देवर अनेक भव्य जीवों को अतिशय श्रेष्ठ मोक्ष पदवी प्राप्त कराने लगे । अन्त में शुक्ल ध्यान के तृतीय और चतुर्थ भेद के द्वारा उन्होंने अघाति चतुक का क्षय कर दिया और पुण्य-पाप कर्मों से विनिमुक्त होकर अविनाशी मोक्ष प्राप्त किया । तीसरा चक्रवर्ती मधवा पहले वासुपूज्य स्वामी के तीर्थ में नरपति नाम का राजा था फिर उत्तम शांति से युक्त थेष्ठ चारित्र के प्रभाव से बड़ी ऋद्धि का धारक अहमिंद्र हुआ, फिर समस्त पुण्य से युक्त मधवा नाम का तीसरा चक्रवर्ती हुया और तत्पश्चात् मोक्ष के धेष्ठ सुख को प्राप्त हुआ। अयानन्तर-मधवा चक्रवर्ती के बाद ही अयोध्या नगरी के अधिपति, सूर्यवंश के शिरोमणि राजा अनन्तवीर्य की सहदेवी रानी के सोलहवें स्वर्ग से पाकर सनतकुमार नाम का पुत्र हुआ। वह चक्रवर्ती की कमी का पिए नपा : उसकी वासु तीन लाख वर्ष की थी, और शरीर को ऊंचाई पूर्व चक्रवर्ती के शरीर की ऊंचाई के समान साढ़े ब्यालीस धनुष थी। सवर्ण के समान कांति वाले उस चक्रवर्ती ने समस्त पृथ्वी को अपने अधीन कर लिया था । दश प्रकार के भोगों के समागम से उसकी समस्त इन्द्रियाँ सन्तृप्त हुई थीं। वह याचकों के संकल्प को पूर्ण करने वाला मानों बड़ा भारी कल्पवृक्ष ही था। हिमवान पर्वत से लेकर दक्षिण समुद्र तक की पृथ्वी के बीच जितने राजा थे उन सबके ऊपर आधिपत्य को विस्तृत करता हुआ वह बहुत भारी लक्ष्मी का उपभोग करता था ।
इस प्रकार इधर इनका समय सुख से व्यतीत हो रहा था उधर सौधर्म इन्द्र की सभा में देवों ने सौधर्मेन्द्र से पूछा कि क्या कोई इस लोक में सनतकुमार इन्द्र के रूप को जीतने वाला है? सौधर्मेन्द्र ने उत्तर दिया कि हाँ, सनतकुमार चक्रवर्ती सर्वाग सन्दर है। उसके समान रूप वाला पुरुष कभी किसी ने स्वप्न में भी नहीं देखा है। सौधर्मेन्द्र के वचन को कौतुहल हुया और वे उसका रूप देखने की इच्छा से पृथ्वी पर पाये। जब उन्होंने सनत कुमार चक्रवर्ती को देखा तव सौधर्मेन्द्र का कहना ठीक है ऐसा कहकर वे बहुत ही हर्षित हुए। उन देवों ने सनतकुमार चक्रवर्ती को अपने पाने का कारण बतलाकर कहा कि हे बुद्धिमान् ! चक्रवतिन् ! चित्त को सावधान कर सुनिये-यदि इस संसार में आपके लिये रोग, बुढ़ापा दःख तथा मरण की सम्भावना न हो तो आप अपने सौन्दर्य से तीर्थकर को भी जीत सकते हैं। ऐसा कहकर वे दोनों देव शीघ्र ही अपने स्थान पर चले गये। राजा सनतकुमार उन देवों के वचनों से ऐसा प्रतिबुद्धि हुअा मानो काललब्धि ने ही पाकर उसे प्रतिबद्धि कर दिया हो। वह चिन्तवन करने लगा कि मनुष्य के रूप, यौवन, सौन्दर्य सम्पत्ति और सुख यादि बिजली रूप लता के विस्तार से पहले ही नष्ट हो जाने वाले हैं। मैं इन नश्वर सम्पत्तियों को छोड़कर पापों का जीतने वाला बनूंगा और शीघ्र ही इस शरीर को छोड़कर अशरीर अवस्था को प्राप्त होऊंगा। ऐसा विचार कर उन्होंने देवकुमार नामक पुत्र के लिए राज्य देकर शिवगुप्त जिनेन्द्र के समीप अनेक राजायों के साथ दीक्षा ले ली। बे अहिंसा आदि पांच महानतों से पूज्य थे, ई यादि पांच समितियों का पालन करते थे, छह आवश्यकों से उन्होंने अपने पाप को वश कर लिया था, इन्द्रियों की सन्तति को रोक लिया था, वस्त्र का त्याग कर रखा था, पृथ्वी पर शयन करते थे, कभी दातीन नहीं करते थे; खड़े-खड़े एक बार भोजन करते थे। इस प्रकार अाईस मूल गुणों से अत्यन्त शोभायमान थे।
तीन काल में योग धारण करना, वीरासन आदि आसन लगाना तथा एक करवट रो सोना आदि शास्त्रों में कहे हुए उतर गुणों का निरन्तर यथायोग्य आचरण करते थे। वे पृथ्वी के समान क्षमा के धारक थे, पानी के समान प्राश्रित मनुष्यों के सन्ताप को दूर करते थे, पर्वत के समान अकम्प थे, परमाण के समान निःसंग थे, प्रकाश के समान निलप थे, समुद्र के समान गम्भीर थे, चन्द्रमा के समान सवको आह्लादित करते थे, सूर्य के समान देदीप्यमान थे, तपाये हुए सुवर्ण के समान
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