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अनुधर सदा उसमें अनुराग रखते थे, यही नहीं देव भी सदा उसके अनुकूल रहता था इसलिये उसकी राज्य लक्ष्मी सबको सुख देने वाली थी। उसके शरीर की बंच लोग रक्षा नहीं करते थे फिर भी पुण्योदय से उसके शरीर और राज्य दोनों ही कुशल युक्त थे। धर्म और काम ये तीनों पुरुषार्थ परस्पर का उपकार करते हुए उसी एक राजा में स्थित वे इसीलिये यह उस राजा का उपकारीपना ही था ।
सिर्फ इस लोक सम्बन्धी ही नहीं थी किन्तु इस प्रकार वह थोमान तथा बुद्धिमान राजा हो गया। यह विचार करने लगा।
शत्रुओं को जीतने वाले इस राजा नन्दिषेण को जीतने की इच्छा मोमीन मार्ग की रक्षा करते हुए इसके परलोक के जोतने की भी इच्छा थी अन्यों मित्रों तथा सेवकों के साथ राज्य सुलभ कि यह जीव दर्शनमो तथा नारियमो इन दोनों मोहकर्म के उदय से मिली हुई मन, वचन, कायको प्रवृत्ति से कर्मों को बांधकर उन्हीं के द्वारा प्रेरित हुआ चारों गतियों में उत्पन्न होता है । अत्यन्त दुःख से तरने योग्य इस अनादि संसार में चक्र की तरह चिरकाल से भ्रमण करता हुआ भव्य प्राणी दुःख से दूषित हुआ कदाचित् कालादि लब्धियां पाकर अतिशय कठिन मोक्षमार्ग को पाता है फिर भी मोहित हुआ स्त्रियों आदि के साथ कोड़ा करता है। मैं भी ऐसा ही हूं श्रतः कामियों में मुख्य मुझको बार-बार धिक्कार है।
मैं समस्त कर्मों को नष्ट कर निर्मल हो अध्वगामी बन कर सबका हित करने वाले सर्वज्ञ-निरूपति निर्वालोक को नहीं प्राप्त हो रहा हूँ यह दुःख की बात है । इस प्रकार विचार कर उत्तम हृदय को धारण करने वाले राजा नन्दिषेण ने अपने पद पर सज्जनोत्तम धनपति नामक अपने पुत्र को विराजमान किया और स्वयं ग्रन्य राजाओं के साथ पाप कर्म को नष्ट करता हुआ बड़े हर्ष से पूज्य लन्दन मुनि का शिष्य बन गया। तदनन्तर ग्यारह मंग का धारी होकर उसने भागम में कही हुई दर्शवादीह कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का बन्च किया और आयु के घर में सन्यास मरण कर मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में श्रहमिन्द्र का जन्म धारण किया। वहाँ उसके शुक्ल लेश्या थी, और दो हाथ ऊंचा शरीर था ।
चार सौ पांच दिन में श्वास लेता था और सत्ताईस हजार वर्ष बाद बाहार ग्रहण करता था। उसकी विक्रिया गि अज्ञान, बल और कान्ति सप्तमी पृथ्वी तक थी तथा सत्ताईस सागर उसकी आयु थी। इस प्रकार समस्त सुख भोगकर मायु के घर में जब वह पृथ्वी तल पर अवतीर्ण होने को था तब इस जम्बूद्वीप के भारत वर्ष सम्बन्धी काशी देश में बनारस नाम की नगरी थी। उसमें सुप्रतिष्ठ महाराज राज्य करते थे। सुप्र तिष्ठ का जन्म भगवान् वृषभदेव के इक्ष्वाकुवंश में हुआ था । उनकी रानी का नाम पृथ्वीणा था रानी पृथ्वीणा के घर के सांगन में देवरूपी मेघों ने छह माह तक उत्कृष्ठ रत्नों की वर्षा कीं थी। उसने भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के दिन विशाखा नक्षत्र में सोलह शुभ स्वप्न देखकर मुख में प्रवेश करता हुम्रा एक हाथी देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र रानी के गर्भ में थाया। पति के मुख से स्वप्नों का फल जानकर रानी पृथ्वीषेणा बहुत ही हपित हुई। तदन्तर ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन प्रग्निमित्र नामक शुभयोग में उसने ऐरावत हाथी के समान उन्नत पौर बलवान महमिन्द्र को पुत्र रूप में उत्पन्न किया ।
इन्होंने सुमेरु पर्वत के मस्तक पर उसका जन्मकालीन महोत्सव किया, उसके चरणों में अपने मुकुट भुकाये और 'सुगा' ऐसा नाम रखा । पद्मप्रभु जिनेन्द्र के बाद नौ हजार करोड़ समय बीत जाने पर भगवान् सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ था। उसकी आयु भी इसी अन्तराल में सम्मिलित थी । उनकी आयु बीस लाख पूर्व को थी, और शरीर की ऊंचाई दो सौ धनुष थी, वे अपनी कांति से चन्द्रमा को लज्जित करते थे। इस तरह उन्होंने यौवन अवस्था प्राप्त की जब उनके कुमारकाल के पांच लाख पूर्व पीत हो गये तब उन्होंने दानी को भांति घन त्याग करने के लिए साम्राज्य स्वीकार किया। उस समय इन्द्र सुपा आदि बुद्धि के आठ गुणों से श्रेष्ठ, सर्वशास्त्रों में निपुण झुण्ड के झुण्ड नटों को देखने योग्य तथा नृत्य करने में निपुण नर्तकों को उत्तम कण्डवाले गायकों को श्रवण करने योग्य साढ़े सात प्रकार के यात्रियायकों को हास्य विनोद करने में चतुर, अनेक विद्यायों और कलाओं में निपुण अन्य अनेक मनुष्यों को ऐसे ही गुणों से सहित अनेक स्त्रियों को तथा
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