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दोहा
इत्यादिक प्रभु प्रस्तवन, पूजा वसुविष घार। निज कोठा में थिर भये सन्मुख जिनहि निहार MEET
चौपाई अब श्री गौतम प्रश्न करेव, प्रभुको फेर नमीं कर सेव । भी स्वामी तुम जगत महेश, कहिये सभा धर्म उपदेश' ||हा जीब तत्व कहिले प्रभु प्रादि, ताके लक्षण कहा अनादि । कहा अवस्था कहिये सोय, गुण अरु भेद बतानो दोय ।।१०।।
हया है । आपका यह उत्तम शरीर सम्पूर्ण जगत्को अत्यन्त प्रिय है और कोटि सूर्य के बराबर तेजज के प्रकाश से सकल दिशामों को आलोकित किया करता है। यह आप का देदीप्यमान मुख मण्डल निर्विकार एवं साम्ब सूचक होकर मनकी अत्यन्त प्रान्तरिक विशद्धिको बतला रहा है। हे जगद्गुरो इस पृथ्वी के जिस जिस स्थान पर आपने अपना चरणारविन्द रखा है, वे सब संसारके पवित्र तीर्थ स्थान हो गये हैं और सदैव उस स्थानकी मनि-देव लोग बन्दना किया करते हैं। इसी तरह हे नाथ, जिन क्षेत्रों में अापके जन्म कल्याणोत्सब मनाये गये है वे सब अति पवित्र एवं श्रद्धास्पद तीर्थ स्थान हो गये हैं। देश काल धन्य हैं
१. बीर-उपदेश "I request you to understand the teachings of Lord Mahavira, think over them and translate them into action"
-Father of the Nation, Shri Mahatma Gandhi.
"जिस प्रकार वृक्षा के समूह को बन, सिपाहियों के समूह को फौज और रत्री-पुरुषों के समूह को भीड़ कहते हैं, उसी प्रकार जीव और अजीव के समुह को संसार अथवा जगन (universe) कहते है। अजीव के पुद्गल, धर्म, अधर्म, वाल, आकाश पाँच भेद हैं । इसलिये जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश इन छः द्रव्यों (Substances) के समूह से 'जगत्' कोई भिन्न पदार्थ नहीं है।
मत्यु से आत्मा की पर्यात (शरीर) का परिवर्तन होता है, आत्मा नष्ट नहीं होनी । कर्मानुसार दूसग चोला बदल लेती है। जैसे सोने का कड़ा तुड़वाकर हार बनवाया, हार तुड़वाकर उली बनबाई, कहा और हार की अवस्था को बदल गई परन्तु द्रव्य की अपेक्षा से सोने का नाम नहीं हआ। तीनों अवस्यायों में सोना मौजद रहा, वैसे ही द्रव्य की अवस्था चाहे बदल जाये, परन्तु किसी गध का नाश नहीं होता और जब द्रव्य नित्य और अनादि है तो द्रव्यों का समूह यह जगत मी अनादि और अधिम है।
संसार में यह जीव वार्मानुमार भ्रमण कर रहा है। अनन्तानंत वर्षों गब यह मिगोद में रहा जहां एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण के महा दाख सहे। जिस प्रकार एम भड़पूजे की भट्टी में कोई दाना किसी प्रकार तिड़पाकर बाहर निकल पड़ता है उसी प्रकार बड़ी कठिनाईयों से यह जीव निगार से निकला तो एकइन्द्रीय स्थावर, जीब' हुथा। जैसे चिन्तामणी रत्न बड़ी कठिनाई रो मिलता है उसी प्रकार अस जीवों का शरीर पामा बड़ा दुर्लभ है। इस जीव ने कीड़ी, भौना, भिगइ. गादि शरीरों को बार-बार धारण करने महा दुल राहा। कभी यह विना मन का पशु हआ। कभी मन सहित शक्तिशाली सिंह, भौंरा आदि पाँच इन्द्रिय पशु हुअा। तब भी उसने कमजोर पशुओं को मार-मारकर खाया और हिंसा के पाप-फल को भोगता रहा और जब यह जीत्र स्वत्र निर्बल हुभा तो अपने से प्रवल जीवों द्वारा बांधे जान, छेदा जाने भेदा जाने, मारा पीटा जाने, अति वोझ उठाने तथा भू-प्यास आदि के ऐसे महायुःख पर पर्याय में महन करने पड़े, जो करोगों जवानों से भी वर्णन न किये जा सकें और जब खेद से मरा तो नरक में जा पड़ा, जहां त्रि भूमि को छूो गे ही इतना दुःग्य होता है जो हजारों सौ और विच्छाओं के काटने पर भी नहीं होता। मरक में नारकीय एक दूसरे को मोटे इन्डों में मान्ने हैं, बछियों से छपते हैं और तलवारों ने शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। नारकीयों का शरीर पारेका होता है, फिर जुड़ जाता है, इसलिये फिर वही मार काट । इस प्रकार हजातें साल तक नरक के महा दुःख भोगे।
यदि किसी नाभ कर्म से मनाप्य पर्याय भी मिल गई तो यहां माता के पेट में बिना किसी हलन-चलन के सिफूडे हग नौ महीनों सक उल्टा लटकना पड़ा। दरिद्रता में पैसा न होने और अमीरशा में तारणा का दु:ख । कभी स्त्री तथा संतान न होने का खेद । यदि पर दोनों प्राप्त भी हो गई तो नारी के कल हारी और संतान के आज्ञाहारी न होने का दुःम कभी गैगी पारीर होने की परिषय, लो कभी इष्ट-वियोग तथा अनिष्ट-संबोग के दुःख । बड़े से बड़ा सम्राट, प्रधान मन्त्री गादि जिसको हम प्रत्यक्ष में सुखी समझते हैं, शत्रु के भय तथा रोग-शोक आदि महा दुःखों से पीड़ित है।