________________
प्रनमी सन्मति मति दातार, नमौं विश्व हित करता सार । नमौं त्रिजग गुरू चरण महेश, नमौं नंन गुण वारिधि तेश ।।६।। यहि विधि तुब अस्तबन बखान, कीनों भक्ति राग उर आन । तुम सुखदायक श्रीपति सेव, जाच तीन लोक भवि जीव ।।१४|| एक जनम सुख कैतिक कह्यौ, सदा शासतौ पद तुम लह्यो । सुख अनन्त प्रापत भए श्राय, तीन जगत जिय प्रणमैं पाय ।।६५||
गीतिका छन्द
त्रिदशपति तुम चरण पूजय, धर्म तीरथ उद्धरै। वर्म अरि जब नाश कीनौं, सुभट पद तब मद्धरै ।। तुम प्रवीण त्रिलोक करता, गुणन निधि कर लेखिये । संसारसागर स्लत जे जिय, तुम जहाज विशेखिये ।।६।। ज्ञान दर्शन रतन पायौ, विबुध पति सेवा करें। कुमति शत्रु निवारक, प्रभु धर्म मारगको धरें। कह्यो गौतम स्तवन जिनबर चरण कमलनिको नयौ । 'नवल' इमि कर जोर विनव, भक्ति तब भव भव लयौ ॥१७||
ALS
वह बुद्धिमान गौतम ब्राह्मण मार्ग में जाते हुए सोचता था कि जब यह वृद्ध ब्राह्मण ही दुर्जेय है तब इसका गुरु तो और भी महा असाध्य होगा। अस्तु चलना ही चाहिये । उस महापुरुष के संसर्ग रो अच्छा ही होगा, हानि क्या होगी? ऐसा विचारता हआ वह पुण्योदयसे संसारको पाश्चर्य चकित कर देने वाले अत्यन्त उन्नत मानस्तम्भको देखा। उस मानस्तम्भके दर्शन से गौतम की मान-लिप्सा इस तरह नष्ट हो गयी जिस तरह वज्रपात से पर्वत श्रेणियाँ सहसा विभक्त होकर नष्टभ्रष्ट हो जाती हैं। शुभमदु परिणाम प्रादुर्भूत हुआ। इसके बाद उस गौतम ब्राह्मण ने अति विशुद्ध परिणामोंसे युक्त होकर सभामण्डपको विपुल विभूतियोंको देखा और पाश्चर्य चकित होकर वह उस अलौकिक सभा मण्डप में प्रविष्ट हया। जब सभामण्डप में प्रविष्ट होकर उस उत्तम विप्रने प्रभुको अनेक ऋद्धियों एवं जीव समूहोंसे घिरे हुए रत्न सिंहासन पर बैठे देखा तब वह अनुरक्तिसे अभिभूत हो गया और भक्ति पूर्वक जगत्गुरु महावीर प्रभुकी तीन प्रदक्षिणा देकर बादमें प्रणाम किया। फिर अंजलिबद्ध होकर अपनी सिद्धि के लिये प्रभु के सार्थक नामों से स्तुति करने लगा-हे भगवान्, तुम जगत के स्वामी हो, एक हजार पाठ नामों से अलकृत होने पर भी नाम-रूपी कर्मके नाशक हो । सम्पूर्ण प्रोंका ज्ञाता बुद्धिमान् पुरुष यदि आपके एक ही नामसे विशुद्ध अन्तःकरण होकर नापको स्तुति करता है तो वह भी आपके ही समान गुणोंने युक्त होकर शीघ्र ही आपके सम्पूर्ण नामों को और उनके फलों को पा सकता है। इसलिये हे प्रभो, मैं अापके एक सौ आठ सुन्दर नामों से श्रद्धाभक्ति पूर्वक प्रापकी स्तुति करता हूँ।
हेगवान, पाप धर्मराजा, धर्मचक्री, धर्मा, धर्मग्रणी; धर्मतीर्थ-प्रवर्तक, धमन्ता, और धर्मेश्वर हैं। तथा धर्मकर्ता, सधर्मात्य धर्मस्वामी, सुधर्मवित, धर्माराध्य, धर्मीश, धर्मीत्य, धर्मबान्धव, धमि-ज्येष्ठ, अतिधर्मात्मा, धर्मभा सधर्मभाक, धर्मभागी, सूधर्मज्ञ धर्मराज, अतिधर्मधीर; महाधर्मी, महादेव, महानाद, महेश्वर, महातेजा, महामान्य महापूत, महातया, महात्मा- महादान्त, महायोगी, महाव्रती और महायानी हैं एव महाज्ञानी' महाकासविक, महान्, महाधोर. महायोर, महाढ़िय महेशिता, महादाता, महात्रांता, महाकर्मा, महीधर, जगन्नाथ, जगद्भर्ता, जगत्कर्ता, जगत्पति, जगज्येष्ठ, जगन्मान्य, जगत्सेव्य, जगन्नुत, जगत्पूज्य, जगत्स्वामी, जगदीश, जगद्गुरु, जगद्वन्ध, जगज्जेता. जगन्नेता, जगत्प्रभु, तीर्थकृत, तीर्थभूतात्मा, तीर्थनाथ, सतीथंचित तीर्थङ्कर, सतात्मिा , तीथश, तीर्थकारक, तीथनेता, सुतीर्थह्य, तीर्थनायक, तीर्थराज, सता तीर्थ मन तीर्थकारण, विश्वज्ञ, विश्वतत्वज्ञ, विश्वव्यापी, विश्वविद्, विदवाराध्य, विश्वेष, विश्वलोकपितामह, विश्वासणी, विश्वात्मा, विश्वार्य, विश्वनायक, विश्वनाथ, विश्वे डय, विश्वधुत, विश्वधर्मकृत, सर्वज्ञ, सर्वलोकज, सर्वदर्शी, सर्ववित्, सर्वात्मा; सर्वधर्मन, सार्व सर्वधाग्रणी, सर्वदेवाधित. सर्वलोकेश, सर्वक महत् सर्वबिधेयर, सर्वशर्मकृत सर्वशर्मभाक पाप ही हैं।
हे त्रिजगत्पति, इन पूर्वोक्त अष्टोत्तरशत (१०८) नामों से मैंने आपकी स्तुति की। पाप हमारे ऊपर दया करें और अपने समान बनावं । हे दब, तीनों लोक में स्वर्ण एवं रत्नोंकी जितनी भी कृत्रिम आकृत्रिम मापनी प्रतिमाए हैं। उन सवकी सदैव में स्तति, पूजा एवं स्मरण किया करता हूं । हे प्रभो, जो नाणी भक्ति पूर्वक यापकी पूजा, स्तुति एवं नमस्कार किया करते
त्रिलोकी के स्वामी हो जाते हैं। जो कि साक्षात् परिमुति आपकी ही रतुति पूजा एवं नमस्कार किया करते और प्रहनिस सेवा किया करते हैं उन भव्य श्रेष्ठोंको कितना अधिक फल मिलता होगा इसकी गणना में नहीं बता सकता । हे नाथ, इस लोकमें जितने भी श्रेष्ठ एवं स्निग्ध परमाणु पुंज हैं उनको सर्वात्मा एकत्र करके ही प्रापके प्रलौकिक सुन्दर शरीर का निर्माण
.
४६१