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उन प्राकृत वेप में रहने वाले 'जंगली' लोगों का स्वास्थ्य महरों में बसने वाले सभ्यताभिमानी 'सज्जनों' से लास दर्जा अच्छा होता है और आचार विचार में भी वे शहर वालों से बड़े चढ़े होते हैं। इस कारण वे एक वस्त्र परिधान की प्रधानता युक्त सभ्यता को उच्च कोटि पर पहुंचते स्वीकार नहीं करते उनका यह भी ठीक क्योंकि प्रकृति को होड़ कृत्रिमता नहीं कर सकती। म गांधी ने निम्न शब्द भी इस विषय में दृष्टव्य है
"वास्तव में देखा जाये तो कुदरत ने चर्म के रूप में मनुष्य को योग्य पोशाक पहनाई है। नग्न शरीर कुरून देख पड़ता है, ऐसा मानना हमारा भ्रम मात्र है । उनम र सौन्दर्य के चित्र तो नग्न दशा में हो देख पड़ते हैं। पोशाक मे साधारण अरंगों को ढककर हम मानो कुदरत के दोपों को दिखला रहे हैं। जैसे-जैसे हमारे पास ज्यादा पेमे होते जाते हैं वैसे ही वैसे हम सजावट बढ़ते जाते हैं। कोई किसी भांति और कोई किसी भांति रूपवान बनना चाहते हैं और बनठनकर कांग में मुंह देख प्रसन्न होते हूँ कि वाह में फैसा खूबसूरत बहुत दिनों के रोगे ही प्रभ्यास से अगर हमारी दृष्टि खराब न हो गई हो तो हम तुरन्त देख गे कि मनुष्य का उत्तम से उत्तम रूप उसकी नग्नावस्था में ही है और उसी मे उसका भारोग्य है।
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इस प्रकार सौन्दर्य और स्वाथ्य के लिये दिगम्बरत्व अथवा नमत्व एक मूल्यमई वस्तु है; किन्तु उसका वास्तविक मुल्य तो मानव समाज में सदाचार की सृष्टि करने में है । नग्नता और सदाचार का अविनाभावी सम्बन्ध है । सदाचार के बिना नग्नता कोड़ी मोल की नहीं है नंगा मन और नंगा न ही मनुष्य को आदर्श स्थिति है। इसके विपरीत गन्दा मन और नंगा तन तो पशुता है उसे कौन बुद्धिमान स्वीकार करेगा ?
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लोगों का खयाल है कि कपड़े-लत्ते पहनने मे मनुष्य शिष्ट और सदाचारी रहता है । किन्तु बात वास्तव में इसके वर-अप है। कपड़े-लत्ते के सहारे तो मनुष्य अपने पाप और विकार को छुपा लेता है। दुर्गुणों और दुराचार का प्रागार बना रह कर भी वह कपड़े की खोट में पाखण्डप बना सकता है, किन्तु दिगम्बर वेप में यह सम्भव है। शुक्राचार्य जी के कथानक से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि शुक्राचार्य युवा थे, पर दिगम्बर वेष में रहते थे। एक रोज वह वहाँ से जा निकले जहां तालाब में कई वेब न्याय न होकर जल कीड़ा कर रही थीं उनके नगेन देव रमणिया में कुछ भी उत्पन्न न किया ? वे जैसी की तैसी नहाती रहीं और शुक्राचार्य अपने निकले ले गये। इस घटना के थोड़ी देर बाद शुक्राचार्य के पिता वहां का निकले उनको देखते ही देवकन्यायें महाना-धोना भूल गई। झटपट सेजल के बाहर निकलीं और अपने वस्त्र उन्होंने पहन लिये एक नगे गुवा को देख कर तो उन्हें शनि और लान थाई किन्तु एक वृद्ध सिष्ट से दिखते 'सज्जन' को देख कर वे सजा गई भला इसका क्या कारण हो न कि गंगा युवा अपने मन में भो नया था उसे विकार ने नहीं का घेरा था। इसके विपरीत उसका वृद्ध और शिष्ट पिता विकार से रहित न था । वह अपने शिष्ट वेष ( ? ) में इस विकार को छिपाये रखने में सफल था किन्तु दिवम्बर युवा के लिए वैसा करना असंभव था। इसी कारण वह निविकारों पर सदाचारी था। बतः कहना होगा कि सदाचार की मात्रा नगे रहने में अधिक है। दिगम्बराय का वह भूषण है। विकारनाव को जीते विना ही कोई नंगा रह कर प्रशंसा नहीं पा सकता | विकारी होना दिगम्बरत्व के लिये कलंक है । न बह मुखी हो सकता है और न उसे विवेक सकता है । इसलिए भगवद् कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं ..
'सागो पावह दुक्खं राणी संसार सागरे भमई । दोहा
॥२॥
भावार्थ (नंगा दुःख पाता है, वह संसार सागर में
भ्रमण करता है, उसे बोधि-विज्ञानदृष्टि प्राप्त नहीं होती, क्योंकि नंगा होते हुए भी वह जिन भावना से दूर है। इसका मतलब यही है कि जिन भावना से युक्त नग्नता ही पूज्य है - उपयोगो है और जिन भावना से मतलब रागद्वेषादि विकार भावों को जीत लेगा हैप्रकृति का होकर प्राकृत मेष में रह रहा है।
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Having given same study to the subject. I may say that Rev. J. F. Wilkinson's remarke upon the superior morality of the races that do not wear clothes is fully borne out by the testimony of the travellers It is the that wearing of clothes goes with a higher state of the arts and to that extent with civilisation, But it is on the other hand attended by a lowere sate of health and morelity so that no clothes civilisation can expect to attain to a high rank."
—“Daily News, London" of 18th April, 1913
२. भाव पाहूड ६८ गाथा ।
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