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. .. ६-कुण्ड निर्देश
१-हिमवान् पर्वत के मूल भाग से २५ योजन हटकर गंगा कुण्ड स्थित है । उसके बहुमय भाग में एक दोष है, जिसके मध्य में एक शैल है । शेल पर गंगा देवी का प्रासाद हैं। इसी का नाम गंगाकुट है। उस कट के ऊपर एक जिन प्रतिमा है, जिसके शीश पर गंगा की धारा गिरती हैं।
पद्मद्रहका मध्यवर्ती कमल
- २-उसी प्रकार सिन्ध प्रादि शेष नदियों के पतत स्थानों पर भी अपने-अपने क्षेत्रों में अपने पर्वतों के नीचे सिन्ध कुण्ड जानने चाहिये। इनका सम्पूर्ण कथन उपरोक्त गंगा कुण्डवत् है विशेषता यह कि उन कुण्डों के तथा तन्निवासिनी देवियों के नाम अपनीअपनी नदियों के समान हैं । भरत ग्रादि क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों उन कुण्डों का अन्तराल भी क्रम से २५, ५०, १००,२००,१००, ५०, २५.योजन है। विदेहों में गंगा सिन्धु रक्ता रक्तोदा नामवाली ६४ नदियों के भी अपने-अपने नाम वाने कुण्डनील निषध पर्वत है जिनका कथन गंगा कुण्डवत है।
देवत:
१० नवी निर्देश
१-हिमवान् पर्वत पर पद्यद्रह के पूर्व द्वार से गंगा नदी निकलती है। द्रह की पूर्व दिशा में इस नदी के मध्य एक कमलाकार कूट है, जिसमें बला नाम को देव रहती है । द्रह से ५०० योजन मागे पूर्व दिशा में जाकर पर्वत पर स्थित गंगाकूट ११२
योजन इधर ही इधर रहकर दक्षिण को प्रोर मुड़ जाती है, और पर्वत के ऊपर ही उसके अर्ध विस्तार प्रमाण अर्थात् ५२३. योजन पागे जाकर वृषभाकार प्रणाली को प्राप्त होती है । फिर उसके मुख में से निकलती हुई पर्वत के ऊपर से अधोमुखी होकर उसको धाग नीचे गिरती है। वहां पर्वत के मूल से २५ योजन हटकर वह गंगा कुण्ड में स्थित गंगाकुट के ऊपर गिरती है। इस गंगा कुण्ड के दक्षिण द्वार से निकल कर वह उत्तर भारत में दक्षिण मुखी बहती हुई विजया की तमिस्त्र गुफा में प्रवेश करती है। उस गुफा के भीतर वह उन्मग्ना वनिमग्ना नदी को अपने में समाती हई । गफा के दक्षिण द्वार से निकल कर वह दक्षिण भारत में उसके आधे विस्तार तक अर्थात ११६ योजन तक दक्षिण को मोर जाती है । तत्पश्चात् पूर्व की ओर मुड़ जाती है और मागध तीर्थ के स्थान पर लवण सागर में मिल जाती है । इसकी परिवार नदियां कुल १४००० हैं। ये सब परिवार नदियां म्लेच्छ खण्ड में ही होती हैं आर्यखण्ड में नहीं।
२-सिन्ध नदी का सम्पूर्ण कयन गंगा नदीबत है। विशेष यह कि पनद्रह के पश्चिम द्वार से निकलती है। इसके भीतरी कमलाकारकूट में लवणा देवी रहती है। सिन्धु कुण्ड में स्थित सिन्धुकूट पर गिरती है । विजयाध की खण्डप्रपात मुफा को
इस चित्रा पृथ्वी की मुटाई एक हजार योजन है। इसके नीचे क्रम से चौदह अन्य पृश्चियां स्थित हैं।
वड्यं, लोहितांक (लोहिताश), असारगल्ल (मसार-फल्पना), गोमेधक, प्रवाल, ज्योतिरस, अंजन अंजनमूल, अंक, स्फटिक, बन्धन, वर्चगत (सर्वार्थका), बहुल (बकुल) और शैल, वे उन उपयुक्त चौदह पुध्वियों के नाम हैं। इनमें से प्रत्येक की मुटाई एक हजार योजन है।
इन पश्चिवों के नीचे एक पाषाण नाम की (सोलहवीं) पृथ्वी है, जो रत्नर्शल के समान है। इसकी मुटाई भी एक हजार योजन, प्रमाण है। ये सब पृथ्वियां बासन के सदृश स्थित हैं।
इसी प्रकार पंक बहुल भाग भी है जो पंक से परिपूर्ण देखा जाता है । तथैव अबहुलभाग जल स्वरूप के आश्रय से है।