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सांत्री से एक जैन लेख विक्रम सं० ४६८ भाद्रपद चतुर्थी का मिला है। उसमें लिखा है कि उन्दान के पुत्र प्रामरकार देव ने ईश्वरवासक मांव और २५ दीनारों का दान किया। यह दान काकनावोट के जैन बिहार में पांच जैन भिक्षों के भोजन के लिये और रत्नगृह में दीपक जलाने के लिये दिया गया था। उक्त प्रामरकारदेव चन्द्रगुप्त के यहां किसी संनिकपद पर नियुक्त था।' यह भी जैनोत्कर्ष का द्योतक है।
राजगृह पर भी फाह्यान निग्रथों का उल्लेख करता है । वहां की सुभद्रगुफा में तीसरी या चौथी शताब्दि का एक लेख मिला है जिसने प्रगट है कि मुनिसंघ ने मुनि वैरदेव को प्राचार्य पद पर नियुक्त किया था। राजगृहपे गुप्तकालको अनेक दिगम्बर मुर्तियां भी हैं ।
सारांशतः गुप्तकाल में दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य भोर वे सारे देश में घूम आपकर धर्मोद्योत कर रहे थे।
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हर्षवर्द्धन तथा हुएनसांग के समय में दिगम्बर-मुनि ! "बौद्धों और जैनियों को भी..... संख्या बहुत अधिक थी। बहुत से प्रान्तीय राजा भी इनके अनुयायी थे। इनके धार्मिक-सिद्धान्त और रीति-रिवाज भी तत्कालीन समाज पर पर्याप्त प्रभाव डाले हुए थे । इनके अतिरिक्त तत्कालीन समाज में साधुनों, तपस्वियों, भिक्षुओं और यतियों का एक बड़ा भारी समुदाय था, जो उस समय के समाज में विशेष महत्व रखता था ।... ( हिन्दुओं में ) बहुत से सावु अपने निश्चित स्थानों पर बैठे हुए ध्यान-समाधि करते थे, जिनके पास भक्त लोग उपदेश आदि सुनने पाया करते थे। बहुत मे साधु शहरों व गांवों में घूम घूम कर लोगों को उपदेश एवं शिक्षा दिया करते थे। यही हाल बौद्ध भिक्षुत्रों और जैन साधुओं का भी था।......... "साधारणतः लोगों के जीवन को नैतिक एवं धार्मिक बनाने में इन साधुओं, यतियों और भिक्षुत्रों का बड़ा भारी भाग था।"
-कृष्णचन्द्र विद्यालंकार गुप्त साम्राज्य के नष्ट होने पर उत्तर-भारत का शासन योग्य हाथों में न रहा । परिणाम यह हुआ कि शीघ्र ही हण जाति के लोगों ने भारत पर आक्रमण करके उस पर अधिकार जमा लिया। उनका राज्य सभी धर्मों के लिये थोड़ा बहुत हानि कर हा; किन्तु यशोधर्मन् राजा ने संगठन करके उन्हें परास्त कर दिया। इसके बाद हर्षवद्धन् नामक सम्राट् एक ऐसे राजा मिलते हैं जिन्होंने सारे उत्तर भारत में प्राय: अपना अधिकार जमा लिया था । और दक्षिण-भारत को हथियाने की भी जिन्होंने कोशिश की थी। इनके राजकाल में प्रजा ने संतोष की सांस ली थी और वह धर्म-कर्म की बातों की ओर ध्यान देने लगी थी।
गुप्तकाल से ही नाह्मण-धर्म का पुनरुत्थान होने लगा था और इस समय भी उसकी बाहुल्यता थी, किन्तु जैन और बौद्ध धर्म भी प्रतिभाशाली थे। धार्मिक जागति का वह उन्नत काल था । गुप्तकाल से जैन, बौद्ध और ब्राह्मण विद्वानों में बाद और शास्त्रार्थ होना प्रारम्भ हो गये थे। हर्षकाल में उनको वह उन्नतरूप मिला कि समाज में विद्वान ही सर्वश्रेष्ठ पुरुष
साधुओं, कभक्षुत्रों और का बहुत में,
१. भानारा. भा.२ पृष्ठ २६३
. "Here also the Nigantha made a pit with fire in it and poisoned the food of which he invited Buddha to partake, (The Niganthas were ascetics who went naked) -Fa-Hian, Beal PP. 110 113 यह उल्लेख साम्प्रदायिया द्वेष का द्योतक है।
३. बंविओ जस्मा. पष्ठ १६
7. "Report on the Ancient Jain Remains on the hills of Rajgir" submitted to the paiva Court by R. B. Ramprad Chanda. B. A. Ch. IV. p. 30. (Jain Images of the Gupta and pala perjod at Rajgir)
५. हर्षकालीन भारत-"त्याग भूमि" वर्ष २ खण्ड ११० ३०१
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