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शासन देवियां थीं।
उत्तर भारत में कन्नौज को राजपूत-काल में भी प्रधानता रही है। वहां का राजा भोज परिहार (८४०१०ई०) सारे उत्तर भारत का शासनाधिकारी था। जैनाचार्य बप्पसरि ने उसके दरबार में पादर प्राप्त किया था।
थावस्ती, मथुरा, असाईखेड़ा, देवगढ़, बारानगर, उज्जैन आदि स्थान उस समय भी जैन केन्द्र बने हुए थे। ग्यारहवीं शताब्दि तक श्रावस्ती में जैनधर्म राष्ट्रधर्म रहा था । वहाँ का अन्तिम राजा सुहध्वजा था। उसके संरक्षण में दिगम्बर मुनियों का लोक-कल्याण में निरत रहना स्वाभाविक है।
बनारस के राजा भीमसेन जैन धर्मानुयायी थे और वह अन्त में पिहिताथव नामक जैन मुनि हये थे।
मथरा में रणतु नामक राजा जैन धर्म का भक्त था। वह अपने भाई गुणवर्मा सहित नित्य जिनपूजा किया करता था। आखिर गुणवर्मा को राज्य देकर वह जैन मुनि हो गया था ।
सरीपुर (जिला अागरा) का राजा जितशत्रु भी जैनी था। वह बड़े-बड़े विद्वानों का आदर करता था। अन्त में वह जैन मुनि हो गया था और शान्तिकीति के नाम से प्रसिद्ध हया था।
__ मालवा के परमार राजा और दिगंबर मुनि मालबा के परमारवंशी राजाओं में मुञ्ज और भोज अपनी विद्या रसिकता के लिये प्रसिद्ध हैं। उनकी राजधानी धारानगरी विद्या की केन्द्र थी। मुज के दरवार में धनपाल, पद्यगुप्त, धनञ्जय, हलायुद्ध आदि अनेक विद्वान थे। मुज नरेश से दिगम्बर जैनाचार्य महासेन ने विशेष सम्मान पाया था। मुज के उत्तराधिकारी सिंधुराज के एक सामन्त के अनुरोध से उन्होंने प्रद्युम्न चरित' काव्य की रचना की थी। कवि धनपाल का छोटा भाई जैनाचार्य के उपदेश से जैन हो गया था, किन्तु धनपाल को जैनों से चिढ़ थी। आखिर उनके दिल पर भी सत्य जैन धर्म का सिक्का जम गया और वह भी जैनी हो गये थे।
दिगम्बर जैनाचार्य घी शुभचन्द्र भी राजा मुज के समकालीन थे। उन्होंने राजा का मोह त्यागकर दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की थी।
राजा मत के समय में ही प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य श्री अमितगति जी हुए थे। वह मथुरा संघ के प्राचार्य माधवसेन के शिष्य थे। 'आचार्यवयं अमितगति बड़े भारी विद्वान् और कवि थे। इनकी असाधारण विद्वता का परिचय पाने को इनके अन्थों का मनन करना चाहिए । रचना सरल और सुखसाध्य होने पर भी बड़ी गम्भीर और मधुर है। संस्कृत भाषा पर इनका अच्छा अधिकार था।
'नीतिबाक्यामृत आदि ग्रन्थों के रचयिता दिगम्बराचार्य श्री सोमदेव सूरि श्री अमितगति आचार्य के समकालीन थे। उस समय इन दिगम्बराचार्यों द्वारा दिगम्बर धर्म की खूब प्रभावना हो रही थी।
१. "वीर" वर्ष ३१० ४७२ एक प्राचीन जैन गुटका में यह बात लिखी हुई है। २. भाइ, प. १०८ दिन, वर्ष २३ १०५४। ३. सप्राजरगा०, ग.० ६५। ४. जैन० प० २४२। ५. पूर्व । ६. पूर्व०, पृ० २४१ । ७. भातारा, भा०१ पृ.१००। ८. मप्रारमा० भूमिका, पृ० २० । ६. भाप्रारा० भा० १ पृ० १२०-१०४ । १०. मजैइ. १०५४-५५ ११. विको०, भा० २ १.० ६५॥ १२. बिर०, . ११५॥
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