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प्रामुख
इस ग्रन्थ की भूमिका लिखने का प्रस्ताव जब मेरे सामने पाया तो स्वभावत: मुझे संकोच हुा । किन्तु जब मैंने इस ग्रन्थ का सुक्ष्म अवलोकन किया तो मुझे बड़ा सन्तोष एवं हर्ष हुमा । हर्ष का कारण यह था कि एक अप्रकाशित जैन रचना प्रकाशित की जा रही है और सन्तोष इसलिए कि वास्तव में यह रचना प्रकाशित करने योग्य थी और जैन हिन्दी काव्य में प्रपना समुचित स्थान बनाने में भाषा, भाव, छन्द और अलंकार सभी दृष्टियों से समर्थ है। इसका सम्पूर्ण श्रेय प्राचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज को है, जिन्हें अप्रकाशित रचनाओं को प्रकाशित कराने की अत्यधिक रुचि है।
प्राचार्य श्री जैन मुनियों के कठोर प्राचार और मर्यादाओं का निर्वाह करते हुए अपने समय का सदुपयोग संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, कानड़ी, तमिल आदि भाषाओं के अनुपलब्ध और अप्रकाशित ग्रन्थों के अनुसन्धान और उनके अनुवाद के लिये करते रहते हैं। उनकी प्रान्तरिक इच्छा और प्रयत्न ऐसे सभी ग्रन्थों को प्रकाशित करने का रहता है। उनकी इसी अातुर इच्छा और समर्थ प्रयत्नों के कारण अबतक अनेक ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके हैं । भरतेश वैभव, रत्नाकर शतक, अपराजितेश्वर शतक, धर्मामृत यादि कन्नड़ भाषा के अमूल्य ग्रन्थों का रसास्वादन हिन्दी भाषाभाषी जनता भी कर सकी, यह प्राचार्यश्री की उसी इच्छा सौगा । मरिणामसी प्रकार तमिल, बंगला, गुजराती भाषा के कई ग्रन्थ-रत्नों का हिन्दी में और संस्कृतप्राकृत के ग्रन्थों का इन भाषाओं में अनुवाद करके प्राचार्यश्री ने इन भाषामों पर बड़ा उपकार किया है। मेरी मान्यता है कि विभिन्न भाषाओं के ग्रन्थों का हिन्दी में और हिन्दी रचनाओं का कन्नड़ या अन्य भाषाओं में रूपान्तर करके प्राचार्यश्री ने भाषा गत दूरी को कम करने और विभिन्न भाषाभाषी लोगों में भावात्मक एकता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उनके इस योगदान से राष्ट्रीय एकता के पक्ष को बड़ा बल मिला है। इसके लिये समग्न राष्ट्र प्राचार्यश्री का सदा ऋणी रहेगा ।
प्राचार्यश्री के इस प्रयास का एक और उज्ज्वल पक्ष है। उनके इस अध्यवसाय से भारतीय वाङ्मय समृद्ध होता है समग्र भारतीय वाड्मय का मूल्यांकन करते समय जैन साहित्य के महत्व और गौरव को विस्मृत नहीं किया जा सकेगा। इतना ही नहीं; जैन साहित्य को उसके उपयुक्त उच्च स्थान प्राप्त होगा।
प्रस्तुत ग्रन्थ 'वर्धमान पुराण' उनकी इसी इच्छा और प्रयत्न का परिणाम है और यह जैन साहित्य को समृद्ध बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
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ग्रन्थ-प्राप्ति
प्रस्तुत ग्रन्थ में 'वर्धमान पुराण' भी है । इसके रचयिता कविवर नवलशाह हैं। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित था और ग्रन्थ-भण्डारों की शोभा बढ़ा रहा था । आचार्यश्री जव किसी जिनालय में जाते हैं तो वे वहाँ का शास्त्र-भण्डार अवश्य देखते हैं उनकी दृष्टि और रुचि अप्रकाशित ग्रन्थों का पता लगाने की रहती है और यदि कोई अप्रकाशित उपयोगी ग्रन्थ उपलब्ध हो जाता है तो वे उसके संपादन और प्रकाशन में दत्तचित्त होकर जुट जाते हैं।
एक बार पाप दिगम्बर जैन खण्डेलवाल मन्दिर वैदवाड़ा दिल्ली में आयोजित एक धार्मिक सभा में प्रवचन के लिये पधारे। प्रवचन समाप्त होने पर आपने वहाँ के शास्त्र-भण्डार का अवलोकन किया। उसमें प्रापको प्रस्तुत ग्रन्थ की एक अप्रकाशित बहमूल्य प्रति उपलब्ध हुई। यह प्रति सचित्र थी। आचार्यश्री को इस प्रति को प्राप्ति से अत्यन्त हर्ष हुमा। उन्होंने इस ग्रन्थ को प्रतिलिगि कराई। उसका संशोधन और संपादन किया तथा उसका अनुवाद किया। चित्र अत्यन्त भावपूर्ण,