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पुरुपवेदतं नारी होइ, दुराचार भाषो प्रभु सोय । पंगु अन्ध बहिरी पूनि कोइ, विकल मूर्ति मुका जिम होइ ॥ १०५॥ रोगी कोई निरोगी जीव, रूपयंत वितरूप प्रतीव दुरंग भग कौन विधि जान, सुधी कुपी मूरख किन मान ॥ १०६ ॥ अशुभ चित्त 'चित्ती केम, क्यों भोगी अनभोगी जेम । धर्मवंत अरु पापो कहीं धनी निर्धनो किहि विधि ली ।। १०७ ।। कौन कर्म जिय है वियोग कौन घर्मले सुजन संयोग कि दाता कि कृपण हाय कि गुणवन्त बिना गुण कोय ।। १०८॥
शुभ
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अनन्य एवं असाधारण है केवल मात्र आपमें ही ये गुण है। यद्यपि आप कामना शून्य है तथापि संसारके सम्पूर्ण पदार्थों से श्रेष्ठ प्रतिहार्यादि पाठ सम्पदाएं आपके पास अयो बिराज रही है। इनके अतिरिक्त और भी अन्य आपके असङ्ख्य गुण तोनों लोकमें अद्वितीय हैं फिर हमारे जैसे मूति एवं स्वा ज्ञाना आपके उन अनुपम गुणोंकी प्रशसा किस प्रकार सफलतापूर्वक कर सकते हैं। हे प्रभो ! जैसे कि मेघों की जलधारा, आकाश के तारा मण्डल समुद्र की तरङ्गों की एवं सांसारिक जीवोंकी गणना कदापि नहीं की जा सकती है बने ही आपके गुण भी अस्त्र एवं अनन्त है इसलिये आपकी स्तुति में किस प्रकार
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से पार उतरने के लिये जहाज के समान है. मिथ्यात्व रूसी अबेरे को दूर करने के लिये सुई और कर्म रूपी ईन्धन जो भस्म करने के लिए अग्नि है जो की मान जी इझरा यदि कथा इष्टवयरोग और निष्टसंयोग से सूचित है, उनके लिए सम्यग्दर्शन से अधिक कल्याणकारी और कोई औषधि नहीं जो ज्ञान और चारित्र के पालने में प्रसिद्ध हुए हैं, वे भी सम्यग्दर्शन के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं कर सके ? सम्यदर्शन के साय ने पशु भी मानव है और उसके अभाव से मानव भी पशु है। जितने समय सम्यग्दर्शन रहता है उतने समय कम का बंध नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन रूपी भूमि में सुख का बीज तो बिना बोये ही उग जाता है, परन्तु जैसे बंजर भूमि मे बीज गिरने पर भी फल को प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनही भूमि पर दुख का बीज गिर जाने पर भी कदाचित फल नहीं दे सकता। यदि एक क्षणमात्र भी सम्यग्दर्शन प्रकट कर लिया जाय तो मुक्ति हुए बिना नहीं रह सकती। सम्यग्दर्शन वाले जीव का ज्ञान सम्यग्ज्ञान, चारित्र सम्यग्चारित्र स्वयं हो जाता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्वचारित्र तीनों का समूह रत्नश्रय हैं और रत्नत्रय मोक्ष मार्ग है। इसलिये सम्यग्दर्शन एक बार भी धारण हो जाये तो इच्छा न होने पर भी यदि हो सका तो उसी भव में; अन्यथा अधिक से अधिक १५ भद में मोक्ष अवश्य प्राप्त कर लेता है।
पदार्थ के समस्त अंगों को सम्पूर्णरूप से जानने के लिये जीव का अनेकान्सवादी अथवा स्याद्वादी और आत्मा के स्वाभाविकरणों को उत्रनेवाले कर्मरूपी परदे को हटाने के लिये अहिंसावादी होना जरूरी है, अहिंसा को पूर्णरूप से संसारी पदार्थों और उसको मोह-ममता के त्याची निग्रंथ नग्न साधु हो भली भांति पाल सकते हैं । इसलिये जो अपनी आत्मा के गुणों को प्रकट करने तथा अविनाशी मुख-शान्ति की प्राप्ति के अभिलाषी हैं, उन्हें अवश्य निज और पर का भेद विज्ञान विश्वासपूर्वक जानकर भुनि-धर्म का पालन करना उचित है, परन्तु जो जीव संसारी पदार्थों को मोह-ममता अनादि काल से करते रहने की आदत के कारण एकदम निर्बंध साधु होने की शक्ति नहीं रखते, वे गृहस्थ में रहते हुए ही संसारी पदार्थों की मोह-ममता कम करने का अभ्यास करने के लिए सप्त उवसन का त्याग करके आठ मूल गुण श्रावक के बारह प्रत अवश्य धारण करें | जैसे जन्म बिना बायड़ी, कमल बिना तालाव और दांत विना हाथी शोभित नहीं मे ही तपस्या शील सगम नादि के बिना मनुष्य जन्म शोभा नहीं देता। जितनी अधिक श्रद्धा और रुचि इनमें बढ़ेगी, उतनी ही अधिक शान्ति, संतोष और वीतरागता उत्पन्न होगी। इस प्रकार धीरे-धीरे प्रतिमाएं लेकर काम करना चाहिये।
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संसारी पदार्थों में सुख मानने वाला लोभी जीव स्वर्ग प्राप्ति की अभिलाश करता है । परन्तु स्वर्गों में सच्चा सुख कहां ? जिस प्रकार क्षीर सागर का मीठा और निर्मल जल पीने वाले को खारी बावड़ी का जल स्वादिष्ट नहीं लगता, उसी प्रकार मोक्ष के अविनाशी तथा सच्चे सुखों का स्वाद चखने वालों को संसारी तथा स्वर्ग के सुख आनन्ददायक नहीं होते। इसलिये सम्यग्दृष्टि देव तथा देवों के भी देव इन्द्र तक मनुष्य जन्म पाने की अभिलाषा करते हैं कि कम स्वर्ग की आयु समाप्त होकर हमें मनुष्य जीवन मिले और हम तर करके कर्मों को काटकर मोक्ष रूपी कर नांधने के लिये तो चौरासीला योनियाँ है, पर्माने के लिये केवल एक मनुष्य ही है। य जन्म मिलना बड़ा दुर्लभ है। निगोद मे निकलने के बाद अरबों-खरबों वर्षों में अधिक से अधिक सोलह बार मनुष्य जन्म मिलता है और यदि इनमें मोक्ष की प्राप्ति हुई तो नियमानुसार यह जीव फिर गोद में अवश्य चला जाता है, जहाँ से फिर निकलकर आना इतना दुर्लभ है जितना चिन्तामणि रत्न को अपार सागर में फेंककर फिर उसको पाने की इच्छा करना। जिस प्रकार मुखं पारस पथरी की कीमत न जानकर उसे फेंक देता है, उसी प्रकार धर्म पालने पर नौकरी नहीं की मुख्यमाहीं जीता गया, सन्तान नहीं हुई बीमारी नहीं गई नहीं मिला तो धर्म छोड़ना पारस पथरी फेंकने के समान है। धर्म अवश्य अपना सुन्दर फल देगा, यह तो पहले पाप कर्मों की तीव्रता है ओ धर्म पालने पर भी तुरन्त संसारी सुख नहीं मिलते | इसमें धर्म का दोष नहीं । धावक-धर्म पालने से धन-सम्पति सुन्दर स्त्रियां, आज्ञाकारी पुत्र, निरोग शरीर तथा राज
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