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फल का वह अधिकारी होना चाहिए, (७) उसे विश्वास होना चाहिए कि जिस बुद्ध से वह बातचीत करता है वह शोक से परे है और वह स्वयं उस दशा को प्राप्त होगा, (८) और उसे बुद्ध पद प्राप्ति के निमित्त दृढ़ निश्चय करना चाहिए। इन पाठ गुणों को भी गौतमबुद्ध ने प्राप्त किया था। इस कारण वह बुद्ध पद के अधिकारी हुए थे। अपने वेस्सन्तरभव से वह देव लोक के तुसित विमान में सन्तुतुसित नामक देव हुये थे । वहां वह बड़ी विभूति सहित ५७ कोटि ६० लाख वर्ष तक रहे थे, यह बौद्ध शास्त्र प्रगट करते हैं । इस अन्तराल के अन्त में जब देवों ने जाना कि एक बुद्ध का जन्म होगा और वे सन्तुसित हैं तो वे सब इनके पास जाकर बुद्ध पद को धारण करने के लिए कहने लगे । इस पर बुद्ध ने वहाँ "पंच महाविलोकन" किये अर्थात् उन पांच बातों को जाना कि (१) उस समय मनुष्य को प्रायु १०० वर्ष की थी, जो बुद्ध पद के लिए उपयुक्तकाल था, (२) बुद्ध जम्बुद्वीप में जन्म लेते हैं, (३) मध्य मंडल अथवा मगध का प्रदेश उत्तम क्षेत्र है. (४) उस समय क्षत्रिय वर्ण प्रधान था, इसलिए उसमें जन्म लेना उचित है, (2) और राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के मृत्यु दिवस से ३०७ दिन पहले उनके गर्भ में उनको पहुंच जाना चाहिए । इस तरह इन पांच बातों को जानकर उसने नियत समय में राजा शुद्धोदन को रानी महामाया के गर्भ में पदार्पण किया और फिर उनका जन्म हुमा, यह हम ऊपर देख चुके हैं ।
भगवान महावीर ने तीर्थकर पद प्राप्त करने के लिए बैसा कोई निदान नहीं बांधा था जैसा कि म० बुद्ध को करना पड़ा था। हाँ, यह अवश्य है कि जैन धर्म में भी खास भावनायें और विशेष गुण तीर्थकर पद प्राप्त करने के लिए आवश्यक बतलाये गये हैं। इन खास भावनामों और गुणों के पाराधन से उस पुरुष के 'तीर्थकर नाम कर्म" नामक कर्म का बंध होता है, जिससे वह स्वभावतः उस परम पद को प्राप्त करता है । थो तत्वार्थसूत्र जी में इस सम्बन्ध में यहो कहा गया है, यथा--
"दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नताशीलनतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौशक्तितस्त्यागतपसीसाधुसमाधियाबृत्यकरणमहदाचार्यबहश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्ग प्रभाव
नाप्रवचनवत्सलत्यमिति तीर्थकरत्वस्य ।।२४-६।। अर्थात-तीर्थकर कर्म का पाश्रव निम्न १६ भावनाओं द्वारा होता है
(१) दर्शनविशुदिध-सम्यदर्शन की विशवधता.-- (२) विनय सम्पन्नता.. मुक्ति प्राप्ति के साधनों अर्थात रत्नत्रय मार्ग के प्रति विनय और उनके प्रति भी जो उनका अभ्यास कर रहे हैं, (३) शीलबतेष्वनतिचार–प्रतीचार रहित पांच बतों का पालन और कषायों का पूर्ण दमन, (४) अभीक्ष्ण-ज्ञानोश्योग -सम्यग्ज्ञान की सलग्नता में स्वाध्याय में अविरत प्रयास, (५) संवेग-संसार से विरक्तता और धर्म से प्रेम, (६) शक्तितस्स्याग—अपनी शक्ति अनुसार त्याग भाव का अभ्यास, (७) शक्ति तस्तपः-अपनी शक्ति परिणाम तप का पालन करना, (८) साधु समाधि-साधुनों को सेवा सुश्रुषा और रक्षा करना, (8) बेयावत्यकरण-सर्व प्राणियों की खासकर धर्मात्मा पुरुषों की वैयावृत्य करना, (१०) अहंदभक्ति अर्हत भगवान की भक्ति करना, (११) प्राचार्य भक्ति -प्राचार्य परमेष्ठी को उपासना करना, (१२) बहुश्रुतभक्ति-उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना (१३) प्रवचनभक्ति - शास्त्रों का विनय करना, (१४) आवश्यकता परिहाणी-अपने पडावश्यकों के पालन में शिथिल न होना, (१५) मागप्रभावना मोक्ष मार्ग अर्थात् जैन धर्म प्रकाश करना और (१३) प्रबचनवत्सलत्व - मोक्ष मार्गरत साधर्मी भाईयों के प्रति बात्साल्यभाव रखना, इनका पूर्णध्यान हो तीर्थकर पद प्राप्त करने में मूल कारण है । तथापि उनका पुरुष होना, क्षत्रियकुल में जन्म करना, जन्म से ही तीन ज्ञान और मलमूत्रादि रहित शरीर धारण किए हुए होना माता पिता अथवा किसी अन्य व्यक्ति को नमस्कार न करना, आदि विशेषण भी होते हैं। भगवान महावीर ने अपने पूर्व भवों में उक्त भावनामों का पालन समूचित रीति से किया था, जिसके फलस्वरूप बह राजा सिद्धार्थ के गह में तोयंकर पद पर प्रारूढ़ होने के लिए जन्मे थे। अपने सिह के भव से वे देवलोक के पृष्पोत्तर विमान में अपूर्व सम्पति के धारक देव हुए थे। वहां के भोग-भोग कर वे राजा सिद्धार्थ की रानि त्रिशला की कोख में पाए थे और फिर उनका सुखकारी जन्म हुआ था। तीनों लोक इस कल्याणकारी जन्मावतार से मुदित हो गये।
म० वुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था भार वह उस समय शाक्य गणराज के प्रमुख राजा थे। इनकी राजधानी कपिलवस्तु थी। म० बुद्ध का जन्म यही वैशाख शुक्ला २ को हुआ था, किन्तु अभाग्यवश इनके जन्मते ही इनकी माता के प्राणपखेरू इस नश्वर शरीर को छोड़कर चल बसे थे। इनका लालन-पालन इनकी विमाता ने किया था। इनके जन्म होने पर एक अजित नामक ऋषि ने आकर राजा शुद्धोदन को बतलाया था कि उनका पुत्र गौतम राज्य सामग्री का उपभोग नहीं